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________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि ( आचार्य श्री अमरसिंह जी म. ) आपके दर्शनार्थ आए तथा आपसे दिल्ली पधारने की तथा आपके श्री चरणों में संयम ग्रहण करने की प्रार्थना तथा इच्छा व्यक्त की थी । दीक्षा के उपरान्त कुछ वर्षों तक आप एकाकी रहे । बाद में आपके कई शिष्य बने । वृद्ध कथन के अनुसार आपके बारह शिष्य थे । परन्तु सात शिष्यों का ही नामोल्लेख उपलब्ध होता है । उनमें भी तीन के अतिरिक्त शेष शिष्यों का इत्तिवृत्त अनुपलब्ध है । आपके सात शिष्यों की नामावली है - ( १ ) श्री दौलत राम जी (२) श्री लोटन दास जी ( ३ ) श्री धनीराम जी (४) श्री देवीचन्द जी (५) श्री अमर सिंहजी (६) श्री रामरल जी (७) तपस्वी श्री जयंति दास जी म. । अन्तिम तीन मुनिराजों का इतिवृत्ति ही वर्तमान में उपलब्ध है । पंडित श्री रामलाल जी म. तपस्वी श्री छजमल जी म. के पश्चात् प्रथम संत पुरुष हुए जिनसे वर्तमान पंजाब सम्प्रदाय का उद्भव हुआ। आप का देहावसान दिल्ली चान्दनी चौक के बारहदरी स्थानक में वि.सं. १८६८ में आश्विन मास में हुआ । आपके बाद आपके पंचम शिष्य श्री अमरसिंह जी म. मुनिसंघ के आचार्य बने जिनका परिचय आगे दिया जा रहा है। ( ६ ) आचार्य श्री अमरसिंह जी महाराज आप अपने युग के एक ज्योतिष्मान आचार्य थे । अपनी विलक्षण प्रतिभा और उत्कृष्ट संयम साधना से आपने पंजाब स्थानकवासी संघ में नवीन प्राणों का संचार किया। आपकी संयमीय सुगन्ध दिग्दिगन्त तक व्याप्त हो गई थी। संक्षेप में आपका इतिवृत्त यूं है. - आप का जन्म पंजाब प्रान्त के अमृतसर नगर में लाला बुधसिंह तातेड़ की धर्मपत्नी श्रीमती कर्मो देवी की रत्नकुक्षी से वि.सं. १८६२ में वैशाख कृष्णा द्वितीया को २२ Jain Education International हुआ। यह एक सम्भ्रान्त जौहरी कुल था । कालक्रम से आप सोलह वर्ष के हुए। आपके मातापिता ने आपका विवाह स्यालकोट निवासी लाला हीरालाल जी की पुत्री सुश्री ज्वालादेवी के साथ सम्पन्न कर दिया । आप पांच सन्तानों के पिता बने जिनमें दो पुत्रियां तथा तीन पुत्र थे। पर पुत्रों का संयोग आपके भाग्य में न था। दो पुत्र तो जन्म के कुछ ही समय बाद दिवंगत हो गए । तृतीय पुत्र जिस पर आपका विशेष अनुराग था वह भी आठ वर्ष की अवस्था में आपकी आंखों से ओझल हो गया । हिमालय सा अचल आपका धैर्य डांवाडोल बन गया। ममत्व का तटबन्ध बिखर गया । कोमल भावनाओं सृजित राग का वितान बिखर गया। उस क्षण विरासत में मिले संस्कार आपका आधार बने । राग का प्रासाद बिखर जाने से आप बिखरे नहीं । अपितु आपने विराग के अनन्त नभ पर अपनी दृष्टि केन्द्रित कर दी। आपका विश्वास स्थिर हो गया कि प्रत्येक संयोग की अन्तिम परिणति वियोग ही है । आपका मन निर्वेद की साधना के लिए कृत्संकल्प बन गया । आप जौहरी थे । व्यवसाय के लिए दिल्ली और जयपुर आपका आवागमन रहता था । उसी संदर्भ में एक बार आप जयपुर गए। वहां पर आपको चातुर्मासार्थ विराजित पूज्य श्री रामलाल जी म. के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ। तपस्वी और त्यागी मुनि के दर्शन कर आपका वैराग्य प्रबलतम बन गया। आपने मुनि श्री से दिल्ली पधारने की प्रार्थना की। साथ ही आपने अपने भीतर उपजे वैराग्य से मुनि श्री को परिचित कराया । जयपुर से लौटकर आपने अपने सांसारिक दायित्वों को संपूर्ण किया। अपनी दोनों पुत्रियों के विवाह सम्पन्न किए। आपने अपना पूरा कारोबार निकटस्थ परिवार जनों को सौंप दिया। तब तक आपकी धर्म प्राण पत्नी भी दिवंगत हो चुकी थी । पंजाब श्रमण संघ की आचार्य परम्परा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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