________________
श्रमण परंपरा का इतिहास
पंजाब श्रमणसंघ की आचार्य परम्परा
पंजाब में मुनि परम्परा कब और कैसे प्रारंभ हुई यह एक विस्तृत चिन्तन का विषय है। कुछ विद्वद् मनीषियों मुनियों द्वारा इस दिशा में काफी चिन्तन और अन्वेषण कार्य हुआ है। विशेष रूप से इस दिशा में इतिहास केसरी विद्वद्वर्य पंडित रत्न गुरुदेव श्री सुमन मुनिजी म. ने कार्य किया है। प्राचीन हस्तलिखित पट्टावलियों तथा पाण्डुलिपियों की खोज करके उनके आधारों पर आप इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि पंजाब की धरती पर सर्वप्रथम 'जिन धर्म' की सम्यक् रूप से प्ररूपणा करने वाले जो महापुरुष थे उनका नाम आचार्य श्री हरिदास जी महाराज था।*
प्राप्त ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर यह भी सिद्ध होता है कि आचार्य प्रवर श्री हरिदास जी म. से पूर्व भी पंजाब में जिन धर्म विद्यमान था पर वह यंत्र-तंत्र के विश्वासी यतियों द्वारा संचालित था जिनमें विशद्ध श्रमणाचार का पक्ष गौण और शिथिलाचार व लोकैषणा का पक्ष प्रमुख था। पंजाब के क्षितिज पर आचार्यवर श्री हरिदास जी म. रूपी सूर्योदय के साथ ही यति परम्पराएं शनैः-शनैः अपना प्रभाव खोने लगीं। विशुद्ध संयम और क्रियावाद को प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। वह प्रतिष्ठा वर्तमान क्षण तक चिरंजीव है।
आचार्य श्री हरिदास जी महाराज अपने जीवन के पूर्वार्द्ध में यति परम्परा में दीक्षित हुए थे। परन्तु आगमों के अध्ययन से उनमें क्रिया-रुचि जागृत हुई। यतिकर्म को तिलांजलि देकर वे सद्गुरु की खोज में निकल गए। अहमदाबाद में सद्गुरु के रूप में उन्हें लवजी ऋषि का
सान्निध्य प्राप्त हुआ। उनसे आपने प्रव्रज्या ग्रहण की।
पंजाब परम्परा का संक्षित इतिहास प्रस्तुत करते हुए मैं आचार्य श्री हरिदास जी म. के गुरु श्री लवजी ऋषि जी म. के परिचय से इस परम्परा लेखन का प्रारंभ करना तर्कसंगत समझता हूँ क्योंकि उन्हीं महापुरुष की कृपा से पंजाब में संयम-सौरभ का प्रसार हुआ था। पूज्यवर्य श्री लवजी ऋषि जी म.का यथाप्राप्त परिचय निम्न हैश्री लवजी ऋषि
आपका जन्म वि.सं. १६७४ में सूरत नगर में श्रीमाल जाति के सामन्त श्री वीर जी वोरा की पुत्री फूलबाई की रत्नकुक्षी से हुआ। बारह वर्ष की अल्पावस्था में वि.सं. १६८६ में आपने यतिराज वज्रांग जी से दीक्षा ग्रहण की। शास्त्र स्वाध्याय और आत्मचिन्तन से आपके आत्मचक्षु खुल गए। आपने अनुभव किया -- विशुद्ध संयम की आराधना ही आत्मकल्याण का मूल मंत्र है। यतिकर्म अर्थात् यंत्र-मंत्रादि की साधना का आत्मकल्याण से कोई संबंध नहीं है। दृष्टि मिली तो सृष्टि बदल गई। सं. १६६४ में आपने सर्वविरति साधु दीक्षा धारण कर ली
और आत्मसाधना तथा शासन प्रभावना का पुण्य अनुष्ठान करने लगे। आप श्री जयराज जी म. के पट्ट पर विराजमान हुए और आर्यसुधर्मा स्वामी की पट्ट परम्परा के ७६ वें पट्टधर बने।
आपका विचरण क्षेत्र अत्यन्त विशाल रहा। आप अठाइस वर्षों तक आचार्य पद पर प्रतिष्ठित रहे। वि.सं.
* कुछ पट्टावलियों में इनका नाम हरदास व हरजी ऋषि भी उल्लिखित है। परन्तु पंजाब पट्टावलि में 'हरिदास' ही उल्लिखित है। प्रतीत होता है लेखन स्खलना के कारण हरिदास का हरदास बन गया है। 'ऋषि' शब्द यह विशेषण ऋषि सम्प्रदाय का वाचक था और अद्यतन भी नामकरण की यही परम्परा चल रही है। संभवतः इसी कारण 'हरऋषि' ऐसा नामोल्लेख हुआ है। श्री अगरचन्द नाहटा द्वारा सम्पादित काव्य संग्रह में भी इनका नाम 'हरिदास' संज्ञा से अभिहित हुआ है।
पंजाब श्रमणसंघ की आचार्य परम्परा
१७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org