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________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि देवढ़ि खमासमण जा, परंपर भावओ वियाणेमि । सिढ़िलायारे ठविया, दव्वओ परम्परा बहुआ । । ' अर्थात् - श्रमण भगवान् महावीर के निर्वाणोत्तर आर्य सुधर्मा स्वामी से लेकर आर्य देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण तक श्रमण भगवान् महावीर की श्रमण परम्परा शुद्ध एवं भाव परम्परा के रूप में विद्यामान रही । देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण के स्वर्गारोहण के पश्चात् अनेक द्रव्य परम्पराएं प्रगट हो प्राबल्य में आई । निर्ग्रन्थ श्रमण - श्रमणी वर्ग शिथिलाचारी हो गया । अभयदेवसूरि द्वारा उपर्युल्लिखित गाथा में प्रगट किये गये उद्गारों का यह अर्थ कभी न लगाया जाय कि विशुद्ध मूल श्रमण परम्परा का प्रवाह देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण के पश्चात् पूर्णतः अवरुद्ध अथवा तिरोहित ही हो गया । प्रभु महावीर के २७वें पट्टधर के पश्चात् श्रमण - परम्परा का मूल स्रोत मन्द तो अवश्य हुआ किन्तु इसकी धारा प्रवाहित रही और इस पंचम आरक की समाप्ति के दिन के अपराह्न तक वह धारा प्रवाहित रहेगी । जब-जब भी शिथिलाचार श्रमण परम्परा के विशुद्ध आचार पर छाने लगा तब-तब महान् आत्मार्थी ओजस्वी सन्तों ने क्रियोद्धार किया, घोरातिघोर परीषह सहन कर श्रमण परम्परा के विशुद्ध स्वरूप को तिरोहित होने से बचाया एवं अक्षुण्ण रखा । चैत्यवासी परम्परा का समूलोन्मूलन करने वाले श्रमण श्रेष्ठों के उत्तराधिकारी भी अन्ततोगत्वा सोना-चांदी - मोती आदि परिग्रह के धनी एवं घोर शिथिलाचारी बन गये और उन्होंने जैन धर्म के आध्यात्मिक स्वरूप को बाह्याडम्बर के घटाटोप से पूर्णतः प्रच्छन्न सा कर दिया । उस समय धर्मवीर लोकाशाह ने अभिनव धर्मक्रान्ति का सूत्रपात कर श्रमण परम्परा के साथ साथ धर्म के वास्तविक स्वरूप को आडम्बर के घनान्धकार से निकालकर पुनः आध्यात्मिक आलोक से आलोकित किया । १. आगम अष्टोत्तरी अभयदेव सूरि २. दशवैकालिक सूत्र - १/५ २ - Jain Education International धर्मोद्वारक लोकाशाह : समय-समय पर हुए उन महान् धर्मोद्धारकों का और विशेषतः लोकाशाह का नाम जैन इतिहास में सदा-सर्वदा - स्वर्णाक्षरों में लिखा जाता रहेगा। उनके द्वारा श्रमण परम्परा के महावीर कालीन स्वरूप के वास्तविक स्वरूप को चिरस्थायी बनाये रखने के लिये जिस परम्परा का अभिनव रूप से सूत्रपात किया गया, उसी परम्परा की शाखाएं न केवल राजस्थान में ही अपितु भारत के सुदूरस्थ समुद्र के पार्श्ववर्ती प्रान्तों तक में भी फैली हुई हैं । इस श्रमण परम्परा की देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण के पश्चात् की पट्टावलियां भी अनेक रूपों में उपलब्ध होती हैं । उनमें से सर्वाधिक प्रामाणिक पट्टावलियों का एवं महान् धर्मोद्वारक लोकाशाह तक के इतिवृत्त का इतिहास - मार्तण्ड आचार्य श्री हस्तीमल जी महाराज द्वारा रचित, “जैन धर्म का मौलिक इतिहास” भाग २,३ और ४ में यथाशक्य विस्तार से उल्लेख उपलब्ध होता है । समग्रधर्म क्रान्ति का अंकुरण : धर्मवीर एवं कर्मवीर लोंकाशाह ने जब दशवैकालिक सूत्र में - महुगार समा बुद्धा जे भवंति अणिस्सिया । नाणा पिण्डरया दंता तेण वुचंति साहुणो । आयावयंति गिम्हेसु, हेमंतेसु अवाउडा । वासासु पडिलीणा, संजया सुसमाहिया । इन गाथाओं को पढ़ा तो उनकी आंखें खुली। सर्वज्ञप्रणीत श्रमणाचार के धारकों और तत्कालीन श्रमण-श्रमणी वर्ग में व्याप्त सुसम्पन्न गृहस्थों से भी अत्यधिक परिग्रहपूर्ण ऐश्वर्यपूर्ण, नितान्त भोगपरक एवं बाह्याडम्बर से ओतप्रीत आचार-विचार को देखकर उनके अन्तर्चक्षु सहसा ३. दशवैकालिक सूत्र - ३/१२ श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी श्रमण परंपरा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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