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________________ श्रमण परंपरा का इतिहास श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी श्रमण - परंपरा 9 भद्रेश कुमार जैन, एम.ए.,पी.एच.डी. यह शाश्वत एवं निर्विवाद सत्य है कि जैन धर्म प्रथम पट्टधर आचार्य सुधर्मास्वामी हुए। सुधर्मा स्वामी से अनादिकाल से था, है, और रहेगा। इस सत्य को उद्घाटित लेकर २७वें पट्टधर देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण तक के आचार्यों करती है - जैन धर्म में हुई अनन्त-अनन्त चौवीसियां। के नाम नन्दी आदि विभिन्न पट्टावलियों एवं जैन इतिहास अतः जैन धर्म की शाश्वतता को स्वीकारना ही होगा। ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं।' इस अवसर्पिणी काल चक्र के सर्वप्रथम धर्मोन्नायक वीर निर्वाण संवत् १ से ६४ तक केवलीकाल रहा । तीर्थकर थे - श्री ऋषभदेव अंतिम तीर्थंकर श्री महावीर तदनंतर वीर निर्वाण संवत् १७० तक चतुर्दश पूर्वधर स्वामी थे। तीर्थंकरों की जीवनियां एवं कालक्रम लगभग काल अर्थात् श्रुत-केवली काल रहा। तत्पश्चात् वीर नि. निर्विवाद हैं। किन्तु भगवान् महावीर के अथवा यों कह संवत १००० तक क्रमशः १० पूर्वधर तथा नव-अष्ट दें कि आर्य देवर्द्धि क्षमाश्रमण के पश्चात् अद्यावधि तक यावत् एक पूर्वधर काल रहा। अतः उन दिव्य ज्ञानियों हुए आचार्यों के कालक्रम एवं जीवनियों में बहुधा अन्तर के समय में प्रभु महावीर द्वारा प्रतिष्ठापित श्रमण-परम्परा पाया जाता है। पट्टावलियों के आधार पर ही इनकी के स्वरूप में किसी भी प्रकार की विकृति का आना सम्भव इतिहास सामग्री पायी जाती है। अतः प्रत्येक सम्प्रदाय की नहीं था। पट्टावली पृथक्-पृथक् है। श्रमण भगवान् महावीर की परम्परा वस्तुतः ‘श्रमण' शिथिलाचार का प्रादुर्भाव : परम्परा है। एवं जिन द्वारा प्ररूपित होने के कारण देवर्द्धिक्षमाश्रमण के सुरलोक प्रयाणानन्तर नित्य 'जिनमति' परम्परा भी है। इस आलेख में स्थानकवासी । नियतवासी, चैत्यवासियों का जिनशासन पर वर्चस्व अत्यधिक परम्परा को श्रमण एवं जिनमति परम्परा का संवाहक बढ़ जाने के परिणामस्वरूप श्रमण-श्रमणी वर्ग में प्रायः मानते हुए क्रांतिकारी आचार्यों का संक्षिप्त वृत्त एवं पट्टावली सर्वत्र शिथिलाचार का साम्राज्य छा गया और महावीर भी दी गई है। कालीन विशुद्ध श्रमणाचार स्वरूपा श्रमण-परम्परा की धारा इतिहास वेत्ता आदरणीय श्रीयत गजसिंह जी राठौड़, एक प्रकार से अंतर्ग्रवाही - स्रोत के रूप में अवशिष्ट रह जयपुर से भी इस आलेख हेतु विचार-विनिमय एवं इतिहास गई। सामग्री प्राप्त हुई है, अतः उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित नवांगी टीकाकार आचार्य अभयदेव सूरि ने इस करता हुआ अपने विषय की ओर अग्रसर हो रहा हूँ। संदर्भ में इस श्रमण-परम्परा को देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण के उस महती, महनीया, विश्वकल्याणकारिणी श्रमण आचार्यकाल पर्यन्त विशुद्ध भाव-परम्परा की उपमा से परम्परा में भगवान् महावीर के निर्वाण के अनन्तर प्रभु के अलंकृत करते हुए कहा है - १- (अ) नन्दी स्थविरावली (इ) जैन धर्म का मौलिक इतिहास - आचार्य श्री हस्तीमल जी रचित, सम्पादक श्री गजसिंह राठौड़ | श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी श्रमण परंपरा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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