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पुनश्च
तस्मान्न शोचामि न विस्मयो मे, यदस्मदीयं न तत्परेषाम् ।। ”
“यद् भावि न तदभावि, भावि चेन्न तदन्यथा ।
इति चिन्ता-विषघ्नोऽयमगदः, किं न पीयते ।।”
तात्पर्य यह है कि जीवन में जो घटित होना है, प्राप्त होना है, वह होता ही है। इसे दैव भी नहीं रोक सकता । भावि - भवितव्य, अभावि अभावितव्य कभी नहीं बनता ।
यही घटित हुआ, सत्संकारों के धनी इन महामानव के साथ । शैशव में ही अवांछित, अप्रत्याशित, अवितर्कित मातृ-पितृ-भ्रातृवियोग का इन्हें सामना करना पड़ा, जो एक बालक के लिए प्रलयंकर जैसा था, किन्तु उस भीषण परिस्थिति में, जहाँ सब ओर तमिस्रा परिव्याप्त थी, एक दीप शिखा की ज्यों बालक को एक सहृदया, मातृ- कल्पा सन्नारी गुरुणीवर्या श्री रुक्मा देवी का जो सर्व सम्मत आश्रय प्राप्त हुआ, वह इनके महिमामय जीवनपादप के संवर्धन एवं विकास का अनन्य साधन सिद्ध हुआ । ऐहिकता आमुस्मिकता से पराभूत होती गई । जीवन एक ऐसे साधना-पथ की गवेषणाओं में लगा, जो चरम प्रकर्ष की मंजिल तक पहुँचा सके। वैष्णव वैरागी साधु, नाथ योगी आदि विभिन्न धार्मिक परंपरानुगत साधना पद्धतियों का पर्यवलोकन करते हुए ये जैन जगत के महान्, ऋषिवर्य्य, साधक शिरोमणि, पंचनद प्रदेश के युवाचार्य विद्वन्मूर्धन्य श्री शुक्ल चन्द्रजी म.सा. तथा उनके अंते वासी श्री महेन्द्र कुमारजी म.सा. के सान्निध्य सेवी बने, जहाँ उनकी विद्वत्ता, संयत चर्या और साधना से इनकी अतृप्त अध्यात्म, पिपासा परितृप्ति प्राप्त कर सकी, जिसकी परिणति श्रमण-दीक्षा के रूप में परिघटित हुई ।
जीवन का रूपान्तरण हुआ। वंशानुगत श्रममयी जीवन- सरणि शम, सम एवं श्रमाल्पावित पावन त्रिवेणी में परिणत होकर ऐसे आत्मोज्वल रूप में उद्भावित हुई, जिसकी उत्तरोत्तर समुच्छलित भाव-तरंगे न केवल अन्तरतम ही, वरन् विराट् जन-मानस में भी परमात्मा उप्राणित अभिनव सृष्टि को संस्फुटित करने लगी, संप्रति कर रही हैं । यहां इस सन्दर्भ में जैन जगत् के क्रान्तिकारी अधिनायक महामहिम आचार्य हरिभद्र सूरि का विचार प्रस्तोतव्य है । उन्होंने योग दृष्टि समुच्चय नामक अपने महान् ग्रन्थ में कुलयोगी, गोत्रयोगी, प्रवृत्त - चक्रयोगी तथा निष्पन्न योगी के रूप में योगियों के चार भेद किये हैं । कुलयोगी उन्हें कहा गया है, जो पूर्व जन्म में अपनी योग-साधना को पूर्ण नहीं कर पाते, उससे पूर्व ही जिनका आयुष्य पूरा हो जाता है। उनका अग्रिम जन्म योगानुभावित संस्कार लिये होता है । निमित्त विशेष पाकर उनके यौगिक संस्कार स्वयमेव प्रस्फुटित हो जाते हैं। न यह अतिरंजन है और न अतिशयोक्ति ही, श्री सुमन मुनिजी म. सा. वस्तुतः एक कुल योगी हैं। उनकी धीर, गंभीर मुखाकृति, निश्छल, निर्मल प्रकृति तथा विकृति - विवर्जित चर्या इसके स्पष्ट निदर्शक हैं। गुरुवर्यों के अनुग्रह और अनुशासन का संबल पाकर इनका जीवन उत्तरोत्तर, अधिकाधिक विकास-प्रवण होता गया, जिसकी फल- निष्पत्ति स्थितप्रज्ञत्व के रूप में प्रकटित हुई । श्रीमद् भगवद्गीता के निम्नांकित श्लोक इनके जीवन में सम्यक् परिघटित होते हैं -
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“प्रजहाति यदा कामान्, सर्वान् पार्थ ! मनोगतान् । आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते । । दुखेष्वनुद्विग्नमनाः, सुखेषु विगत-स्पृहः । वीतराग-भय-क्रोधः, स्थितधीर्मुनिरुच्यते । । ”
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अध्याय २ - ५५-५६
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