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गुणी पुत्र यदि एक भी हो, तो वह उत्तम है, मूर्ख सैकड़ों भी हों तो कोई लाभ नहीं। अकेला चन्द्रमा अंधकार का हनन-विनाश करता है, असंख्य तारागण भी वैसा करने में सक्षम नहीं है।
सद्गुण-संपन्न सन्त, साधक, योगी सर्वथा निःस्पृह होते हैं। उनके मन में कभी भी यह अभीप्सा उत्पन्न नहीं होती कि उनका कीर्ति-गान एवं संस्तवन हो। क्योंकि वे तो आत्म-तुष्टि को ही जीवन का परम साध्य मानते हैं। यद्यपि आज इसका बहुलांशतया विपर्यास दृष्टिगोचर होता है, जो तथाकथित महात्मवृन्द के अन्तर्दोर्बल्य का परिचायक है, जिसे वे ऐहिक संस्तुति, प्रशस्ति और यशस्विता की मोहकता में विस्मृत किये रहते हैं। भारत जैसे परम अध्यात्म प्रवण देश में जो आज ऐसा परिलक्षित होता है, उसे एक असह्य विडंबना की संज्ञा दी जाए तो अत्युक्ति नहीं होगी। किन्तु इस युग में भी OASIS IN DESERT (रगिस्तान में नखलिस्तान) के रूप में ऐसे वरेण्य संतप्रवर विद्यमान हैं, जो स्व-पर-कल्याण में सर्वथा निरत रहते हुए साधना के प्रशस्त पथ पर समर्पण भाव से गतिशील हैं। यह लिखते हुए जरा भी संकोच नहीं होता कि श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ के परामर्शक एवं मंत्री, विद्या और चर्या के अप्रतिम संवाहक मुनिवर्य श्री सुमनकुमारजी म.सा. एक ऐसे ही सौम्य, सहृदय एवं सात्विक चेता महापुरुष हैं। उनके आर्जव, मार्दव, सौहार्द, सौमनस्य, लोक-वात्सल्य तथा समत्व आदि सद्गुण सहज रूपेण जन-जन में अप्रयल साध्यतया सर्वत्र संप्रसृत हैं, जैसा आज के युग में दुर्लभ प्राय हैं। “न हि कस्तूर्यामोदः शपथेन विभाव्यते” – कस्तूरी की सुरभि शपथ द्वारा- दृढ़तापूर्वक कहकर नहीं बतलाई जाती, वह तो स्वयमेव प्रसार पा जाती है। वास्तव में मनीषा, साधना एवं चिन्तन के महान् धनी, ये मुनि-मूर्धन्य सर्वथा अभिनन्दनीय तथा अभिवन्दनीय हैं। निःसन्देह चेन्नई महानगरी एवं तमिलनाडु राज्य के गुणग्राही, श्रद्धालु सुजनवृन्द साधु वादाह हैं, जिन्होंने मुनिवर्य के अभिनन्दन-ग्रन्थ-प्रकाशन तथा दीक्षा-स्वर्ण-जयन्ती-समारोह का आयोजन करने का निश्चय कर एक ऐसा ऐतिहासिक तथा चिरस्मरणीय उपक्रम समुपस्थापित किया है, जो लोकमानस में गणग्राहिता की पवित्र भावना को उजागर करेगा। ये संत प्रवर जैसा ऊपर उल्लेख किया गया है. ऐसे आयोजनों से किसी प्रकार का आत्म-परितोष नहीं मानते। यह तो उपकृत जनमानस का एक प्रकार से आनृण्यभाव ही है। यद्यपि इन महान् साधक के उपकारों से अनृणता या उऋणता इतने मात्र में नहीं सधती, क्योंकि उपकार अनन्त हैं, जिनके समक्ष यह उपक्रम अत्यन्त नगण्य है, किन्तु जन-मानस की सत्वगुणमयी भावना का तो संसूचन इसमें है ही।
परम श्रद्धेय श्री सुमन मुनिजी म.सा. का जीवन एक ऐसे कर्मयोगी, भक्तियोगी तथा ज्ञानयोगी की गौरवमयी गाथा है, जिसका अक्षर-अक्षर एक ऐसी अन्तः प्रेरणा को उज्जीवित करता है, जो जन-जन को आसक्ति-विवर्जित, सत्कर्मनिष्ठ, परमात्म-परायण एवं सद् ज्ञानानुशीलन के पावन पथ पर गतिशील बनाती है।
- एक श्रमनिष्ठ कृषिजीवी परिवार में जन्म लेकर इन्होंने जिस संयमानुप्राणित श्रमनिष्ठता की अपने जीवन में अवतारणा की, वह एक ऐसी घटना है, जिसके इर्द-गिर्द विकीर्ण आध्यात्मिक ज्योति! स्फुलिङ्ग एक अनुपम दिव्यता लिए हुए हैं। तव किसी ने वालक 'गिरिधारी' को (श्री सुमनमुनिजी का गृहस्थ नाम) देखकर शायद यह कल्पना तक नहीं कि होगी कि एक दिन यह बालक श्रामण्य के गिरितुल्य भार का संवहन कर वास्तव में अपने आपको गिरिधारी सिद्ध करेगा किन्तु जन्म-जन्मान्तर के संस्कारों अथवा क्षायिक-क्षायोपशमिक भावों के प्राबल्य का ही यह परिणाम था कि परंपरागत कृषिजीविता, ऋषिजीविता में परिणत हो गई। नीतिकार ने ठीक ही कहा है -
“प्रापृव्यमर्थं लभते मनुष्यो, देवोऽपि तं लंघयितुं न शक्तः ।
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