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स्व० पंडित बाबूलालजी : मेरे विद्यागुरु
पं० जगन्मोहनलाल जी शास्त्री
कुंडलपुर
मेरे प्रारम्भिक विद्यागुरुस्वर्गीय पं० बाबूलाल जी के पूर्व निवास का मुझे पता नहीं है । मैंने अपने बचपन से उन्हें कटनी में ही सपरिवार रहते देखा । कभी उन्होंने यह बताया था कि कटनी आने के पूर्व वे सरकारी शालाओं में शिक्षिकीय कार्य कर चुके थे । वे मेरे पिता जी के साथी और मित्र थे ।
उनके आने के ५ वर्ष पूर्व, सन् १९०३ में कटनी में संस्कृत शिक्षा का प्रारम्भ हो चुका था । इसे संस्कृत विद्यालय की स्थापना तो नहीं कह सकते क्योंकि स्व० पं० नाथूराम लमेंचू, जो मूलतः करहल के निवासी थे और उन दिनों कटनी में रहते थे, उन्होंने अपने निवास पर ही २-४ छात्रों को संस्कृत पढ़ाना प्रारम्भ कर दिया था। तीन वर्ष तक इसी प्रकार संस्कृत का शिक्षण चलता रहा । इसी पाठशाला को संस्कृत विद्यालय के रूप में स्थायित्व देने के लिए सन् १९०६ में समाज ने एक जमीन खरीदी और बारह हजार के चन्दे से विद्यालय भवन का निर्माण कराया। उसे संस्कृत पाठशाला का नाम दिया गया। बाहर से भी एक-दो छात्र आ गये, उनके रहने की व्यवस्था भी उसी भवन में की गई ।
सन् १९०८ में पं० बाबूलालजी ने नगर के बालक-बालिकाओं को शिक्षा देने के अभिप्राय से, हिन्दी माध्यम की जैन पाठशाला का प्रारम्भ किया। पाठशाला लगने लगी । पं० बाबूलालजी ही उसके प्रधान अध्यापक थे । इस शाला की बन्धु कुछ असंतुष्ट और रुष्ट हो गए जो संस्कृतशाला चलाते थे । यही कटनी समाज जिसका उल्लेख पं० बाबूलाल जी ने अपने लेख में किया है। उन्हीं दिनों में प्रवेशिका के पाठशाला में पढ़ा । इसमें भी संस्कृत पढ़ाई जाती थी जिसके लिए संस्कृत शिक्षक रखे गये थे ।
में
धार्मिक शिक्षा के साथ लौकिक मन्दिर के पीछे की कोठरी में वह
कुछ समय के पश्चात् श्री क्षुल्लक पन्नालालजी के प्रयत्न या प्रभाव से जब समाज का मतभेद समाप्त हुआ और दोनों पक्षों में सौजन्य स्थापित हो गया, तब यह हिन्दी शाला भी पं० नाथूराम लमेंचू द्वारा १९०३ में स्थापित संस्कृत पाठशाला से सम्बद्ध होकर उसी नवनिर्मित शाला भवन में चली गई ।
स्थापना से समाज के वे
मतभेद का कारण बना लिए दो वर्ष तक इस
पं० बाबूलालजी एक धर्मनिष्ठ, लगनशील, कर्मठ और समाज- प्रिय विद्वान् थे । वे सदैव अपने छात्रों को हर प्रकार से सुयोग्य और संस्कार-सम्पन्न बनाने के लिए प्रयत्नशील रहते थे। आजकल के शिक्षकों की तरह वे मात्र वेतनभोगी शिक्षक न थे जो घड़ी पर निगाह रखकर आधे मन से कार्य करते हैं । विद्यार्थियों से अलग से फीस लेकर ट्यूशन की पद्धति उन दिनों कटनी-जैसी जगह में प्राय: प्रारम्भ ही नहीं हुई थी । पण्डितजी शाम-सबेरे और रात्रि में भी छात्रावास के छात्रों की सहायता करते। उनकी देख-रेख व्यवस्था आदि का सारा कार्य वे सेवाभाव से अवैतनिक ही करते थे । वे सच्चे अर्थों में विद्यानुरागी थे और अपने विद्यार्थियों पर पितृवत् स्नेह करते थे । संस्था की समुन्नति के लिये सदा तत्पर रहते थे ।
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एक सुयोग्य ज्ञानाराधक्र की तरह अध्यापन में संलग्न रहते हुए पण्डित जी हमेशा अपने लिये भी ज्ञान पिपासु बने रहे । आठ-नौ वर्ष अध्यापन करने के उपरान्त सन् १९१७ में वे स्वयं सिद्धान्त-ग्रंथों के अध्ययन के
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