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बौद्ध संस्कृति में पंडित परम्परा ३३ थी। राजकुमार ने सोतोकु ने सद्धर्मपुण्डरीक सूत्र पर जापानी में भाष्य लिखकर वहां की जनता में बौद्ध धर्म को बोधगम्य बनाया। उसने बौद्ध धर्म के आदर्शों के आधार पर देश के लिए संविधान भी तैयार किया। सोतोकु ने धर्म के प्रचार-प्रसार में जापान में अशोक की भूमिका निभाई।
बौद्ध धर्म-दर्शन के विकास में अनेक गृहस्थों ने योगदान किया है पर ऐसे गृहस्थों की कोई मान्य परम्परा नहीं बन पाई है। वर्तमान में ऐसे गृहस्थों की परम्परा दो रूपों में उभर कर आई है। इस सदी में अनागारिक धर्मपाल और धर्मानन्द कोसंबी के समान धर्म-मर्मज्ञों ने बौद्ध धर्म के प्रति लोगों की निष्ठा को सुदृढ़ करने का दुर्धर प्रयत्न किया। इस दिशा में बाबा अम्बेडकर का नाम भी विशेष उल्लेखनीय मानना चाहिए जिनके प्रभाव से बौद्धधर्म भारत में पुनः जागृत हुआ। बाबा सा० ने लोगों को वर्तमान सन्दर्भ में बुद्ध के उपदेशों की उपयोगिता समझाई। आचार्य नरेन्द्र देव, नथमल टाटिया, सी० आर० उपासक तथा अन्य विद्वान् भी इसी कोटि में आते हैं। यह स्पष्ट है कि भिक्षु-संस्था की तुलना में बुद्ध-समुदाय में गृहस्थ विद्वानों की संस्था सदैव दुर्बल रही है।
इस दृष्टि से जापानी गृहस्थ धर्म-मर्मज्ञों की भूमिका अति-सराहनीय है। एक समय आया जब जापान में राष्ट्रवादो भावना को उभारने के लिए वहाँ बौद्ध धर्म को विदेशी बना दिया गया। इस दुर्गति से रक्षा के लिए प्रबुद्ध गृहस्थ धर्म-पण्डित आगे आये और बौद्ध गृहस्थ पंडित परम्परा का जन्म हुआ। इस परम्परा के व्यक्तियों ने द्वितीय विश्व युद्ध की पराजय एवं परमाणु बम के नरसंहार से त्रस्त जापानवासियों को बौद्धधर्मसंगत निदान खोजने हेतु सहानुभूतिपूर्वक मार्ग निर्देश देना प्रारम्भ किया। इससे गृहस्थ धर्म पंडितों को प्रतिष्ठा बढ़ी और लोगों की बुद्ध धर्म के प्रति आस्था भी बढ़ी। इससे गृहस्थ बौद्ध-परम्परा के विकास में भी सहायता मिली। इस समय सोभागकाई एवं रिस्सोकोसेईकाई परम्परायें जापान में बड़ी सम्मानित है। उनके नेताओं को जापान में संघनायकों तथा धर्माचार्यों के समान ही सम्मान मिलता है ।
पिछले चालीस वर्षों में जापान ने पुनः आर्थिक समृद्धि पा ली है। इससे उनमें पाश्चात्य आचार-विचार और रहन-सहन का रोगन चढ़ गया है। उन्हें जीवन जटिल प्रतीत होने लगा है। जापानी गृहस्थ विद्वानों का ध्यान इस ओर गया है। वे धर्म को जीवन में अधिकाधिक उपयोगी बनाने का प्रयत्न कर रहे हैं। उनका कथन है कि समृद्धि के जीवन को छोड़ कर अपरिग्रही जीवन आज के समाज का आदर्श नहीं हो सकता। अतः यह प्रयत्न आवश्यक है कि मानव में मानवीय गुणों का ह्रास न हो। इसलिये धर्म को जीवन का आधार मानना अनिवार्य है। आज व्यक्ति की सबसे प्रबल समस्या बिलगाव एवं व्यक्तिवाद की है। वह अपनी समस्याओं में ही इतना व्यस्त रहता है कि समाज की चिन्ता के लिए अवकाश ही उसे नहीं रहता। ये गृहस्थ-समुदाय के नेता 'धार्मिक बैठकों के माध्यम से आज के समाज में सामाजिकता का सूत्र पिरोने का प्रयत्न कर रहे हैं। वे व्यक्तिगत एवं समष्टिगत समस्याओं का धर्म-संगत समाधान खोजने का प्रयत्न भी करते हैं। इस प्रकार जापान के गृहस्थ बौद्ध धर्माचार्य बौद्ध धर्म को अधिकाधिक उपयोगी बनाने में लगे हैं और उसे एक नया आयाम दे रहे हैं। भारत को भी ऐसी ही परम्परा का विकास करना चाहिये।
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