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प्राचीन प्रश्नव्याकरण : वर्तमान ऋषिभाषित और उत्तराध्ययन ४१३
आदि का उल्लेख किया गया है। यद्यपि यह आश्चर्यजनक है कि एक और निमित्तशास्त्र को पापसूत्र कहा गया-किन्तु संघहित के लिए, दूसरी ओर, उसे अंग आगम में सम्मिलित कर लिया गया। अतः प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु में परिवर्तन करने का दोहरा लाभ था-एक और अन्यतीथिक ऋषियों के वचनों को उससे अलग किया जा सकता था, दूसरी ओर उसमें निमित्तशास्त्र सम्बन्धी नई सामग्री जोड़ कर उसकी प्रमाणिकता को भी सिद्ध किया जा सकता था। किन्तु जब परवर्ती आचार्यों ने इसका दुरुपयोग होते देखा होगा और मुनिवर्ग को साधना से विरत होकर इन्हीं नैमित्तिक विद्याओं की उपासना में रत देखा होगा, तो उन्होंने यह नैमित्तिक विद्याओं से युक्त विवरण उससे अलग कर उसमें पांच आश्रवद्वार और पांच संवरद्वार वाला विवरण रख दिया। प्रश्नव्याकरण के टीकाकार अभयदेव एवं ज्ञानविमल ने भी विषय परिवर्तन के लिए यही तर्क स्वीकार किया है ।२३
प्रश्नव्याकरण की प्राचीन विषयवस्तु कब उससे अलग कर दी गई और उसके स्थान पर पांच आश्रवद्वार और पांच संवरद्वार रूप नवीन विषय रख दी गई, यह प्रश्न भी विचारणीय है ? अभयदेव सूरि ने अपनी स्थानांग और समवायांग की टीका में भी यह स्पष्ट निर्देश किया है कि वर्तमान प्रश्नव्याकरण में इनमें सूचित विषयवस्तु उपलब्ध नहीं है।" मात्र यही नहीं, उन्होंने पांच-पांच आश्रवद्वार और पांच संवरद्वार वाले वर्तमान में उपलब्ध प्रश्नव्याकरण ही टीका लिखी है। अत: वर्तमान संस्करण की निम्नतम सोम अभयदेव के काल (१०८० ई०) से पूर्ववर्ती होना चाहिए। पुनः अभयदेव ने प्रश्नव्याकरण में एक श्रुतस्कन्ध है या दो श्रुतस्कन्ध हैं, इस समस्या को उठाते हुए अपनी वृत्ति की पूर्वपीठिका में से अपने पूर्ववर्ती आचार्य का मत उधृत करते हुए उसे अस्वीकार किया है और यह भी कहा है कि यह दो श्रुतस्कन्धों की मान्यता रूढ़ नहीं है। सम्भवतः उन्होंने अपना एक श्रुतस्कन्ध सम्बन्धी मत समवायांग और नन्दी के आधार पर बनाया हो। इसका अर्थ यह भी है कि अभयदेव के पूर्व भी प्रश्नव्याकरण के वर्तमान संस्करण पर प्राकृत भाषा में हो कोई व्याख्या लिखी गई थी जिसमें दो श्रुतस्कन्ध की मान्यता को पुष्ट किया गया था। उसका काल अभयदेव से २-३ शताब्दी पूर्व अर्थात् ईसा की ८वीं शताब्दी के लगभग अवश्य रहा होगा। पुनः आचार्य जिनदासगणि महत्तर ने नन्दीसूत्र पर ६७६ ई० में अपनी चूणि समाप्त की थी। उस चूणि में उन्होंने प्रश्नव्याकरण में पंचसंवरादि की व्याख्या होने का स्पष्ट निर्देश किया है। इससे भी यह सिद्ध हो जाता है कि ६७६ ई० के पूर्व प्रश्नव्याकरण का पंच संवरद्वारों से युक्त संस्करण प्रसार में आ गया था, अर्थात् आगमों के लेखनकाल के पश्चात् लगभग सौ वर्ष की अवधि में वर्तमान प्रश्नव्याकरण अस्तित्व में अवश्य आ गया था। प्रस्तुत प्रश्नव्याकरण की प्रथम गाथा, जिसमें 'वोच्छामि' कहकर ग्रन्थ के कथन का निश्चय सूचित किया है कि रचना शेष सभी अंग आगमों के कथन से बिलकुल भिन्न है। यह पांचवों-छठी सदी में रचित ग्रन्थों की प्रथम प्राक्कथन गाथा के समान ही है । अतः प्रस्तुत प्रश्नव्याकरण का रचनाकाल ईसा की छठी सदी माना जा सकता है।
इस प्रकार हम कह सकते है कि प्रश्नव्याकरण का वह प्राचीनतम संस्करण है, जिसमें उसकी विषयवस्तु ऋषिभाषित की विषयवस्तु के समरूप थीं और वह लगभग ईसा पूर्व तीसरी सदी की रचना होगी। फिर ईसा की दूसरीसदी में उसमें निमित्तशास्त्र सम्बन्धी विवरण जुड़े जिनकी सूचना उसके स्थानांग के विवरण से मिलती है। इसके पश्चात ईसा की चौथी शताब्दी में ऋषिभाषित आदि भाग अलग किये गये और उसे निमित्तशास्त्र का ग्रन्थ बना दिया, समवायांग का विवरण इसका साक्षी है । इस काल में प्रश्नव्याकरण के नाम से वाचनाभेद से अनेक ग्रन्थ अस्तित्व में थे, ऐसी भी सचना हमें आगम साहित्य से मिल जाती है। लगभग ईसा की छठी सदी के उत्तरार्द्ध में इन ग्रन्थों के स्थान पर वर्तमान प्रश्नव्याकरणसूत्र का आश्रय एवं संवर के विवेचन से युक्त वह संस्करण अस्तित्व में आया है जो वर्तमान में हमें उपलब्ध है। इस सम्बन्ध में अभी विशेष एवं निर्णायक शोध की आवश्यकता है।
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