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४१२ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[ खण्ड
अध्ययन का एक दुसरा पाठ भी मिलता है। इसका तात्पर्य तो यह है कि ऋषिभाषित की विषयवस्तु प्रश्नव्याकरण में भी समाहित थी। यद्यपि यह एक विवादास्पद प्रश्न होगा कि प्रश्न व्याकरण की विषयवस्तु से ऋषिभाषित का निर्माण हुआ या ऋषिभाषित को विषयवस्तु से प्रश्नव्याकरण का। लेकिन यह सुस्पष्ट है कि किसी समय प्रश्नव्याकरण और ऋषिभाषित की विषयवस्तु समान थी और उनमें कुछ पाठान्तर भी थे । अतः वर्तमान ऋषिभाषित में प्राचीन प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु का होना निविवाद रूप से सिद्ध हो जाता है। साथ ही, यह भी सिद्ध हो जाता है कि मूल प्रश्नव्याकरण में पाच आदि प्राचीन अर्हत् ऋषियों के दार्शनिक विचार एवं उपदेश निहित थे। प्रश्नव्याकरण और जयपायड को विषयवस्तु की आंशिक समानता
'प्रश्नव्याकरणाख्य जयपायड' नामक ग्रन्थ की विषयसामग्री निमित्तशास्त्र से सम्बन्धित है । पुनः उसमें कर्ता ने तीसरी गाथा में 'पण्हं जयपायड वोच्छं' कहकर प्रश्नव्याकरण और जयपायड को समरूपता को स्पष्ट किया है। प्रस्तुत ग्रन्थ की इसी गाथा की टीका से ग्रन्थ की विषयवस्तु को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि इसमें 'नष्टमुष्टिचिन्तालामालामसुखदुःखजीवनमरण' आदि सम्बन्धी प्रश्न है। इस उल्लेख से ऐसा लगता है कि धवलाकार ने प्रश्नव्याकरण को विषयवस्तु का जिस रूप में उल्लेख किया है, उसकी इससे बहत कुछ समानता है।" प्रस्तत ग्रन्थ के
निविभाग प्रकरण, नष्टिका चक्र, संख्या प्रमाण, लाभ प्रकरण, अस्त्रविभाग प्रकरण आदि ऐसे हैं जिनकी विषयवस्तु समवायांग में प्रश्नव्याकरण के वणित विषयों से यत्किञ्चित् साम्य रखती है ।२२ दुर्भाग्य यह है कि प्रकाशित होते हुए भी विद्वानों को इस ग्रन्थ की जानकारी नहीं है । यह जैन निमित्तशास्त्र का प्राचीन एवं प्रमुख ग्रन्थ है ।
ग्रन्थ की भाषा को देखकर सामान्यतया यह अनुमान किया जा सकता है कि यह ईस्वी सन् की चौथीपाँचवी शताब्दी की हो सकती है। ग्रन्थ के लिए प्रयुक्त पायड या पाहड़ शब्द के भो यह फलित होता है कि यह ग्रन्थ लगभग पाँचवीं शताब्दी के आसपास को रचना होना चाहिए, क्योंकि कसायपाहुड़ एवं कुन्दकुन्द के पाहुड़ग्रन्थ इसी कालावधि के कुछ पूर्व को रचनाएं हैं । सूर्य प्रज्ञप्ति में भी विषयों का वर्गीकरण पाहुड़ों के रूप में हुआ है । अतः यह सम्भावना हो सकती है कि जयपायड़ प्रश्नव्याकरण के द्वितीय संस्करण का कोई रूप हो, यद्यपि इस सम्बन्ध में अन्तिम रुप से तभी कुछ कहा जा सकता है कि जब प्रश्नव्याकरण के नाम से मिलने वाली सभी रचनाएँ हमारे समक्ष उपस्थित हों और इनका प्रमाणिक रूप से अध्ययन किया जाये । विषय-सामग्री में परिवर्तन क्यों ?
यद्यपि यहाँ यह प्रश्न स्वाभाविकरूप से उठता है कि प्रथम ऋषिभाषित, आचार्यभाषित, महावीरभाषित आदि भाग को हटाकर इसमें निमित्तशास्त्र सम्बन्धी विवरण रखना और फिर निमित्तशास्त्र सम्बन्धी विवरण हटाकर आश्रवद्वार और संवरद्वार सम्बन्धी विवरण रखना-यह सब क्यों हुआ? सर्वप्रथम ऋषिभाषित आदि भाग क्यों हटाया गया ? मेरी दृष्टि में इसका कारण यह है कि ऋषिभाषित में अधिकांशतः अजैन परम्परा के ऋषियों के उपदेश एवं विचार संकलित थे । इसके पठन-पाठन से एक उदार दृष्टिकोण का विकास तो होता था किन्तु जैनधर्म संघ के प्रति अटट श्रद्धा खण्डित होती थी तथा परिणामस्वरूप संघीय व्यवस्था के लिए अपेक्षित धार्मिक कट्टरता और आस्था टिक नहीं पाती थी। इससे धर्मसंघ को खतरा था। पुनः यह युग चमत्कारों द्वारा लोगों को अपने धर्मसंघ के प्रति आकर्षित करने और उनकी धार्मिक श्रद्धा को दृढ़ करने का था, चुकि तत्कालीन जैन परम्परा के साहित्य में अतः उसे जोड़ना जरूरी था। समवायांग में प्रश्नव्याकरण सम्बन्धी जो विवरण उपलब्ध है, पुष्टि होती है-उपमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि लोगों को जिन प्रवचन में स्थित करने के लिए, उनकी मति को विस्मित करने के लिए सर्वज्ञ के वचनों में विश्वास उत्पन्न करने के लिए इसमें-महाप्रश्नविद्या, मनःप्रश्नविद्या, देव-प्रयोग
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