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२६ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[ खण्ड कर्मकांडी को 'गुरु' कहा गया है। मनुस्मृति में आचार्य अथवा उपाध्याय ब्राह्मण को ही कहा गया । महाकाव्य युग में विशेषतः महाभारत में विद्या के क्षेत्र में वर्ण-बन्धन शिथिल ही प्रतीत होते हैं। यही कारण है कि हम परशुराम, द्रोण, कृप जैसे ब्राह्मणों में अद्भुत क्षात्र-बल पाते हैं, तो भीष्म, युधिष्ठिर जैसे क्षत्रियों में अपूर्ण ब्राह्मतेज की झांकी पाते हैं। महाभारत में द्विजों के अतिरिक्त अन्य वर्गों के भी उच्च शिक्षा-प्राप्ति से सम्बद्ध उल्लेख प्राप्त होते हैं। शिक्षा-क्षेत्र में अनेक निम्नकूलोत्पन्न विद्वान अपने प्रखर पाण्डित्य के कारण प्रख्यात थे। इनमें शूद्रागर्भोत्पन्न विदुर, सूतजातीय संजय, लोमहर्षण आदि उल्लेखनीय हैं।
महाभारत में ऐसी अनेक, राजकन्याओं का उल्लेख है जिनका विवाह ऋषियों से हुआ था । च्यवन ऋषि को राजकन्या सुकन्या और गौतम को अहल्या ब्याही गई थी। अनेक ऋषि-कन्याओं ने क्षत्रिय राजाओं का वरण किया था। असुराचार्य शुक्र की कन्या देवयानी ने ययाति का, कण्व की पालिता पुत्री ने दुष्यन्त का वरण किया था। ऐसे उदाहरण भी इस तथ्य के ज्ञापक हैं कि ऋषि अथवा आचार्य वर्ग के प्रति लोगों में असीम श्रद्धा थी। राजकीय ऐश्वर्य में पली राजकन्याएँ भी ऋषियों के साथ सादगीपूर्ण जीवन बिताने में गौरव का अनुभव करती थीं। राजा शर्याति की सुपुत्री सुकन्या अपने वृद्ध एवं नेत्रहीन पति च्यवन की सेवा अप्रमत्त होकर करती थी। आचार्यत्व के सोपान
___ पाणिनि ने चार प्रकार के शिक्षकों का उल्लेख किया है-आचार्य, प्रवक्ता, श्रोत्रिय और अध्यापक । इनमें आचार्य का स्थान सर्वोच्च था। आचार्य को ही शिष्य के उपनयन का अधिकार था। महाभारत में इन चारों प्रकार के शिक्षकों का उल्लेख मिलता है। इन चारों प्रकार के शिक्षकों की प्रतिष्ठा भी वैसी ही थी जैसी कि पाणिनि-काल में । महाभारत में ऋषि सनत्सुजात का कथन है कि जैसे यत्नपूर्वक मुंज के भीतर से सींक निकाली जाती है, वैसे ही भौतिक देह के भीतर निगूढ़ आत्मतत्त्व का साक्षात्कार किया जाता है। भौतिक शरीर तो माता-पिता से मिल जाता है, किन्तु सत्य के संसार में नया जन्म केवल आचार्य की कृपा से होता है ।
मनु ने शिक्षकों को तीन कोटियों-आचार्य, उपाध्याय और गुरु का पूर्वोक्त परिभाषानुसार निरूपण किया है।" मनु की दृष्टि में आचार्य का महत्त्व उपाध्याय की अपेक्षा दसगुना है-"उपाध्यायान्दशाचार्य" । वेदाध्यापन के स्तर के अनुसार महाभारत में शिक्षकों की तीन श्रेणियों का वर्णन पाया जाता है-छन्दोवित्, वेदवित् और वेद्यवित् । जो बहुपाठी, पदक्रम, जटा, घन आदि की रीति से वेदों को कण्ठस्थ करते थे, उन्हें छन्दोवित् कहा जाता था। दूसरी कोटि में वे विद्वान आते थे जो षडंग वेद का अर्थसहित अध्ययन अध्यापन करते थे। वे मध्यम कोटि के विद्वान् माने जाते थे, जिन्हें वेदवित कहा गया है। श्रेष्ठ कोटि के विद्वान् वेद्यवित थे जो जानने योग्य परम तत्त्व को जानते थे। ये वेद्यवित कोटि के विद्वान् ही आचार्य कहलाते थे। इससे स्पष्ट है कि कोरा वेद-परायण नहीं, अपितु वेदों के माध्यम से सत्य का साक्षात्कार करना सच्ची विद्वत्ता की कसौटी थी। ऋषि और आचार्य
यास्क ने ऋषि को 'साक्षात्कृतधर्मा' कहा है। ऋषि का लक्षण बताते हुए वे कहते हैं कि जो अभीष्ट पदार्थों का साक्षात्कार करते हैं, वे ऋषि कहलाते हैं। ये उन्हें उपदेश देते हैं जो साक्षात्कारी नहीं होते।" कहने का तात्पर्य यह है कि केवल बेदाभ्यास कराने से ही कोई ऋषित्व को नहीं प्राप्त करता था, अपितु उन वेद-ऋचाओं के पीछे जिनकी अपनी तपस्या और आत्मानुभव होता था, वे ही सही अर्थ में 'ऋषि' पदवाच्य होते थे। इस प्रकार हम कह सकते है कि सभी ऋषि आचार्य माने जाते थे, किन्तु सभी आचार्य 'ऋषि' पद से सुशोभित नहीं होते थे ।
ऋग्वेद के दूसरे मण्डल से सातवें मण्डल तक प्रत्येक मण्डल के मन्त्रद्रष्टा ऋषि एक ही परिवार के हैं । इन ऋषियों में क्रमशः गृत्समद, विश्वामित्र, वामदेव, अत्रि, भरद्वाज, वसिष्ठ अथवा इनके वंशजों का उल्लेख किया गया है।
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