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पौरपाट (परवार) अन्वय-१ ३५३
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एक दासी-दास प्रमाणातिक्रम भी है जिससे स्पष्ट है कि उस युग में दास प्रथा थी और व्रती धावक को इसकी मर्यादा करना आवश्यक था। कौटिल्य ने भी दासप्रथा का उल्लेख कर उससे छटने के उपाय का भी निर्देश किया है-छुटकारे के . रूप में नकद रुपया देना । अनेक प्रकरणों से पता चलता है कि जैन श्रावक इस प्रथा को बन्द करने में सहायक होते रहे हैं। दो हजार वर्ष पूर्व के भारत की इस साधारण झांकी से स्पष्ट है कि जातिप्रथा की नीव ७-८वीं सदी के पूर्व ही पड़ गई थी।
जातिप्रथा विरोधी जैनधर्म अपने को इस बुराई से न बचा सका, इसके कारण है। यह स्पष्ट है कि महावीर काल के बाद धीरे-धीरे वैदिक धर्म का प्रभुत्व बढ़ने लगा था और जैनधर्म का प्रभाव घटने लगा था। इसके दो कारण मख्य हैं-(१) जैनधर्म के प्रचारकों और उपदेशकों का अभाव । पहले ज्ञानी-ध्यानी मुनिजन गाँव-गाँव विचर कर धर्म का सन्देस जन-जन को देते थे। पर कालदोष एवं त्यागवृत्ति को होनता से उनका अभाव हो गया था। गृहस्थ उनकी त्यागवृत्ति के भार को ठीक से सम्हाल नहीं पाये । समाज की धारणा दूसरी, उपदेशों को दूसरो। इसका मेल न बैठने से जैनधर्मियों की संख्या उत्तरोत्तर कम होती गई। (२) समाज द्वारा प्रदत्त आजीविका के समुचित साधनों के बल पर ब्राह्मण पण्डित गांव-गांव बस कर दैदिक धर्म की प्रभावना में लगे रहे। इस धर्म ने समाज से आजीविका लेना धर्म का ही अंग बना दिया। इन दोनों कारणों से जैनाचार्यों को जातिप्रथा का समाहरण करने के लिये बाध्य होना पड़ा। सोमदेव के निम्न श्लोक से यही पुष्ट होता है :
सर्व एव हि जैनानां, प्रमाणं लौकिको विधिः ।
यत्र सम्यक्त्वहानिर्न, यत्र न व्रतदूषणम् ॥ इससे स्पष्ट है कि जैनधर्म में जातिप्रथा को लौकिक विधि के रूप में स्वीकार किया गया है। वस्तुतः इसमें इस प्रथा को स्वीकार करने का कोई अन्य कारण स्पष्ट नहीं है। यह अध्यात्मप्रवण धर्म होते हुए भी इसमें आचार की मुख्यता है। इस प्रथा को स्वीकार कर लेने का हो यह फल है कि हमें बाह्य में और उसके साथ अभ्यन्तर में धर्म की छाया मिली हुई है। कहने के लिये तो इस समय जैनों में ८४ जातियाँ है, पर मेरी राय में कतिपय जातियाँ तो नामशेष हो गई है और कतिपय ऐसी भी हैं जो दो हजार वर्ष पूर्व भी अस्तित्व में आ चुकी थीं। इस दृष्टि से हम यहाँ पौरपाट अन्वय पर विचार करेंगे क्योंकि एक तो यह पूरा अन्वय दिगम्बर है और दूसरे यह मूलसंघ कुन्दकुन्द आम्नाय को छोड़कर अन्य किसी भी आम्नाय को जीवन में स्वीकार नहीं करता। इसीलिये इस अन्वय का सांगोपांग अनुसन्धान आवश्यक प्रतीत होता है। २. पौरपाट अन्वय । संगष्ठन के मूल आधार
अनुसन्धानों से पता चलता है कि इस अन्वय के संगठन के निम्न तीन मुख्य आधार है : (i) पुराने जैन (ii) प्राग्वाट अन्वय और (ii) परवार अन्वय (1) पुराने जैन
__ वर्तमान में जो 'परवार अन्वय' कहा जाता है, उसका पुराना नाम 'पौरपाट या पौरपट्ट' या जो बदलते 'परवार' क्यों कहलाने लगा, इसका ऊहापोह स्वतन्त्र लेख का विषय है। मुख्य प्रश्न यह है कि यदि यह अन्वय महावीर काल में भी पाया जाता था, तो इसका उल्लेख पुराणों में अवश्य होता। यह तर्क उचित नहीं लगता कि जातिमद निषेध के कारण इसका नामोल्लेख नहीं है क्योंकि यह तकं वर्णों, वंशों व कुलों पर भी लागू होता है। इससे केवल यही अर्थ स्पष्ट होता है कि ये अन्वय महावीर काल में नहीं रहे। यह मानी हुई बात है कि महावीर काल के चतुर्विध संघ में विभक्त तो जैन थे, उन्हीं में से विशिष्ट प्रदेशों में रहने के कारण इस या अन्य अन्वयों का संगठन हुआ होगा।
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