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बीसवीं सदी की एक जैनेतर जैन विभूति : कुंवर दिग्विजय सिंह ३४९
कंवर साहब एक सुयोग्य एवं ओजस्वी वक्ता थे। क्षत्रिय कुलोत्यन्न होने से उनमें तेज था । उपदेशक के रूप में वे श्वेत चादर ओढ़ते थे और चांदी के फेम वाला सफेद चश्मा लगाते थे। उनकी दाढ़ी बढ़ी हुई थी। इससे उनका व्यक्तित्व और भी मनमोहक हो गया था। उनके आकर्षक व्यक्तित्व ने उनकी भाषण कला को और भी चमकाया । वे जैनजैनेतर समाज को जैनधर्म की प्रशंसा द्वारा अत्यन्त मनोमोहक रूप से प्रभावित करते थे। वे सिह और लौह-पुरुष के समान स्थान-स्थान पर श्रोताओं को जैनधर्म की शिक्षा लेने हेतु बालकों और नवयुवकों को प्रेरित करते थे। जिस प्रकार आर्य-विद्वान् स्वामी कर्मानन्द के जैन धर्मावलम्बी बन जाने से जैनधर्म के प्रचार में बड़ा बल मिला, उससे भी अधिक प्रभाव कंवर साहब के जैन-धर्म प्रचार का पड़ा। वे जीवन के अन्त तक जैनधर्म के श्रद्धानी एवं अनुयायी रहे। इसके विपर्यास में, स्वामी कर्मानन्द अन्तिम समय में जैनधर्म त्याग कर अरविन्दाश्रम चले गये थे।
उपदेशक के रूप में अनेक क्षेत्रों की यात्रा के अतिरिक्त कुंवर साहब ने विन्ध्य क्षेत्र के अनेक स्थानों की यात्रा की थी। सतना, शहडोल, छतरपुर और अन्य स्थानों के लोग आज भी उनकी धवल वेशभूषा एवं प्रभावी भाषणों का स्मरण करते हैं । सतना नगर में उन्होंने एक चौमासा बिताया और धर्म शिक्षा हेतु कक्षायें चलाई थीं। उनके भाषणों से प्रभावित होकर सतना नगर से दो व्यक्ति उनके साथ कुछ दिनों तक उनकी धर्म प्रचार-यात्रा में रहे। उनमें से एक बड़ा शाहगढ़ (छतरपुर) निवासी श्री मूलचन्द्र बढ़कुर भी थे। वे लगभग एक वर्ष तक उनके साथ रहे। उनके सत्संग से उनके मन में विचार आया था कि वे अपने पुत्रों को कुंवर साहब जैसा बनायेंगे । सम्भवतः उनकी धार्मिक प्रेरणा ही श्री बढ़कुर के पुत्रों में धार्मिक एवं समाज सेवा के क्षेत्र में कार्य करने के लिये फलवती हुई है । यह सुखद संयोग ही है कि मेरी सूचना के अनुसार, उनके ही एक पुत्र प्रस्तुत साहित्य यज्ञ के होता है ।
श्री दशरथ जैन एडवोकेट के अनुसार, कुंवर साहब को एक बार छतरपुर महाराज विश्वनाथ सिंह ने एक सर्व धर्म सम्मेलन के लिये जैनधर्म के प्रतिनिधि के रूप में छतरपुर आने के लिये निमन्त्रित किया था। उनके भाषणों का जैनेतरों के साथ जैनों पर भी प्रभाव पड़ा एवं छतरपुर में एक शमां बंध गया था। वे मूर्तिपूजा के मनोवैज्ञानिकतः समर्थक थे । छतरपुर के तत्कालीन समैयाजन उनके मूर्तिपूजा-सम्बन्धी तों से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उस समय अपने चैत्यालय में मूर्तिपूजा प्रारम्भ कर दी थी। कर्मणा जैन को विशेषता
कुंवर साहब जन्मना जैन नहीं थे, कर्मणा जैन थे। जैनेतर कुल से सम्बद्ध होने के कारण उनको कर्मता और भी प्रभावी एवं प्रेरक बन गई थी। इसका कारण उनका बहु-दर्शनी ज्ञान एवं बहु-आयामी परिवेश रहा है। इससे उसकी अनेकांत दृष्टि, अहिंसा भावना तथा ईश्वर के सृष्टि कर्तृत्व-सम्बन्धी जैन विचार उन्हें जम गये । पूज्य गणेशप्रसाद वर्णी पर भी यह तथ्य लागू होता है । वस्तुतः जनेतर व्यक्ति किंचित् तटस्थ रहकर विषय का वस्तुगत विश्लेषण करता है, इसलिये वह प्रभावी हो जाता है । ऐसे ही व्यक्ति प्रेरणा-स्रोत होते हैं।
'अनेकान्त' के वर्तमान संपादक पं० पद्मचन्द्र शास्त्री के व्यक्तित्व और अभिव्यक्तित्व का निर्माण कंवर साहब की प्रेरणा से ही हुआ है। उन्होंने पद्मचन्द्र जी के पिताजी से १९२७ में कहा था "पद्मचन्द्र को विद्वान् बनाओ।" बालक के सिर पर हाथ रखकर प्ररणा एवं आशीर्वाद भी दिया था। इसी कारण पं० पद्मचन्द्र जी ब्रह्मचर्याश्रम, मथुरा में और बाद में संघ के उपदेशक विद्यालय में अध्ययन हेतु भेजे जा सके। पण्डितजी ने अपने एक लेख में यह बात स्वीकार की है कि मैं निर्भीकतापूर्वक ऐसी बात लिख देता हूँ जिससे स्थितिपालक तथा अन्य लोग, सहन नहीं कर पाने के कारण, रुष्ट हो जाते हैं। उनकी यह स्पष्टवादिता की वृत्ति कंवर साहब की ही देन है। वे 'अनेकान्त' के 'जरा सोचिये स्तम्भ के अन्तर्गत ऐसे अनेक विषयों एवं प्रकरणों पर प्रकाश डालते हैं जिनसे समाज के वर्तमान के साथ भविष्य भी कीर्तिमान बन सकता है।
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