________________
जैन शास्त्रों में आहार विज्ञान २७१
सारणी ३. आहार के घटकगत भेद
लेह्य
पेय
पेय
लेप
दशवकालिक मूलाचार
रत्नकरंड
सागार अना०
उदाहरण श्रावकाचार धर्मामृत धर्मामृत अशन अशन अशन
अशन
ओदनादि पान पान पान
पान
जल, दुग्धादि खाद्य खाद्य खाद्य
खाद्य
खाद्य खाद्य
खजूर, लड्डू स्वाद्य स्वाद्य स्वाद्य
स्वाद्य स्वाद्य
पान, इलायची मक्ष्य
मंडकादि लेह्य
-
लप्सी, हलुआ पेय
जल, दुग्ध
तैल मर्दन 'अशन' कोटि का विस्तृत निरूपण देखने में नहीं आया है। इसका उद्देश्य क्षुधा-उपशमन है। इस कोटि में मुख्यतः अन्न या धान्य लिया जा सकता है । यद्यपि श्रुतसागर सूरि ने धान्य के ७ या १८ भेद बताये हैं, पर पूर्ववर्ती साहित्य में २४ प्रकार के धान्यों का उल्लेख है। इनमें वर्तमान में इक्षु और धनिया को धान्य नहीं माना जाता। इसलिये श्रुतसागर२२ की सूची में भी इनका नाम नहीं है। प्राचीन साहित्य 3 में पेय पदार्थों के सामान्यतः तीन भेद माने गये हैं पर आशाधर२४ ने सभी को पानक मानकर उसके छह भेद बताये हैं (सारणी ४)। आचारांग में २१ पानकों का उल्लेख है। व्रत विधान संग्रह में 'कांजी' जाति को पृथक् गिनाया गया है पर उसे 'पानक' में ही समाहित मानना चाहिये । यह स्पष्ट है कि आशाधर के छह पानक पूर्ववर्ती२५ आचार्यों से नाम व अर्थ में कुछ भिन्न पड़ते हैं। अशन की तुलना में पानकों को प्राणानुग्रही माना जाता है। अन्तर्ग्रहण-विधि पर आधारित भेष
भगवती सूत्र और प्रज्ञापना२६ में अन्तर्ग्रहण की विधि पर आधारित आहार के तीन भेद बताये गये हैं : ओजाहार, रोमाहार और कवलाहार । इसके विपर्याप्त में वीरसेन ने धवला२७ में छह आहार बताये हैं : ऊष्मा या ओजाहार, लेप या लेप्याहार, कवलाहार, मानसाहार, कर्माहार, नोकर्माहार । वहाँ यह भी बताया गया है कि विग्रहगतिसमापन्न जीव, समुद्धातगत केवली और सिद्ध अनाहारक होते हैं । लोढ़ा२६ ने वनस्पतियों के प्रकरण में ओजाहार को स्वांगीकरण ( एसिमिलेशन ) कहा है, यह त्रुटिपूर्ण प्रतीत होता है। इस शब्द का अर्थ अन्तर्ग्रहण के बाद होने वाली क्रिया से लिया जाता है जिसे अन्नपाचन कह सकते हैं। वस्तुतः इसे शोषण या एवसोर्शन मानना चाहिये जो बाहरी या भीतरी-दोनों पृष्ठ पर हो सकता है। हमारे शरीर या वनस्पतियों द्वारा सौर ऊष्मा एवं वायु का पृष्ठीय अवशोषण इसका उदाहरण है। इसीलिये इसे महाप्रज्ञ ने ऊर्जाहार का ही नाम दिया है।" लेप्याहार को भी इसी का एक रूप माना जा सकता है। रोमाहार को विसरण या परासरण प्रक्रिया कह सकते हैं। यह केवल वनस्पतियों में ही नहीं, शरीर-कोशिकाओं में निरन्तर होता रहता है। कवलाहार तो स्पष्ट ही मुख से लिये जाने वाले ठोस एवं तरल पदार्थ हैं। ये तीनों प्रकार के आहार सभी जीवों के लिये समान्य हैं। जब भावों और संवेगों का प्रभाव भी जीवों में देखा गया, तब विभिन्न कर्म, नोकर्म एवं मनोवेगों को भी अहार की श्रेणी में समाहित किया गया। यह सचमुच ही आश्चर्य है कि भारत में इस मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया का अवलोकन नवमी सदी में ही कर लिया गया था। ये तीनों ही सूक्ष्म या ऊर्जात्मक पुङ्गल हैं। अंतरंग या बहिरंग परिवेश से रोमाहार द्वारा इनका अन्तर्ग्रहण होता है और अनुरूपी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org