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________________ ३] जैन शास्त्रों में आहार विज्ञान २६९ इनका भी परिवेश से अन्तर्ग्रहण आहार कहलाता है । इस दृष्टि से जैनों की 'आहार' शब्द की परिभाषा, आज की वैज्ञानिक परिभाषा से, पर्याप्त व्यापक मानना चाहिये। इसमें भौतिक द्रव्यों के साथ भावनात्मक तत्वों का अन्तर्ग्रहण भी समाहित किया गया है। इसलिये आहार के शारीरिक प्रभावों के साथ मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी जैन शास्त्रों में प्राचीन काल से ही माने जाते हैं। आहार विशेषज्ञों ने आहार के भावनात्मक प्रभावों से सह-सम्बन्धन की पुष्टि पिछली सदी के अन्तिम दशक में ही कर पाई है। आहार की आवश्यकता, लाभ या उपयोग : वैज्ञानिक परिभाषा जैन आचार्यों ने प्राणियों के लिये आहार की आवश्यकता प्रतिपादित करने हेतु अपने निरीक्षणों को निरूपित किया है। उत्तराध्ययन में बताया है कि आहार के अभाव में शरीर काकजंघा तृण के समान दुर्बल हो जाता है, धमनियाँ स्पष्ट नजर आने लगती हैं।" भूखे रहने पर प्राणी की क्रियाक्षमता घट जाती है । मूलाचार के आचार्य " ने देखा कि आहार की आवश्यकता दो कारणों से होती है : (i) भौतिक और (ii) आध्यात्मिक । वस्तुतः भौतिक लक्ष्यों की प्राप्ति से ही आध्यात्मिक लक्ष्य सघता है, "शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनं "। इन्हें सारणी २ में दिया गया है । • सारणी २ : आहार के शास्त्रीय एवं वंज्ञानिक लाभ वैज्ञानिक दृष्टिकोण (अ) भौतिक लाभ : शास्त्रीय दृष्टिकोण (i) शरीर में बल (ऊर्जा) बढ़ता है । (ii) जीवन का आयुष्य बढ़ता है । (iii) शरीर-तंत्र पुष्ट ( कार्यक्षम ) रहता है । (iv) शरीर की कांति बढ़ती है। (v) जीवन सुस्वादु होता है । (vi) भूख की प्राकृतिक अभिलाषा शांत होती है । (vii) दशों प्राण सन्धारित रहते हैं । (viii) आहार औषध का कार्य भी करता 1 (ix) इससे दूसरों की वैयावृत्य को जा सकती है । (x) इससे तप और ध्यान में सहायता मिलती है । आध्यात्मिक लाभ (i) आहार शरीर की मूलभूत एवं विशिष्ट क्रियामों में सहायक होता है। (ii) यह शरीर कोशिकाओं के विकास, संरक्षण व पुनर्जनन में सहायक होता है । (iii) यह रोग प्रतीकारक्षमता देता है। (iv) शरीर की कार्यप्रणाली को संतुलित एवं नियंत्रित करता है। (v) यह शरीर क्रियाओं को आवश्यक ऊर्जा प्रदान करता है । (१) यह चरम आध्यात्मिक लक्ष्य (मोक्ष) प्राप्ति का साधन है । (२) यह धर्मपालन के लिये आवश्यक है । (३) इससे ज्ञानप्राप्ति में सरलता होती है । Jain Education International आशावर १२ के अनुसार, शरीर का स्थिति के लिये आहार आवश्यक है। स्थानांग 3 में आहार से मनोज्ञता, रसमयता, पोषण, बल, उद्दीपन और उत्तेजन की बात कही है। ज्ञारीरिक बल पुष्टि, कान्ति और रोग प्रतीकार क्षमता का ही प्रतीक है । स्वामिकुमार तो क्षुधा और तृषा को प्राकृतिक व्याधि ही मानते हैं। उनके अनुसार आहार ४ ३४ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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