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२६८ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद प्रन्य
[ खण्ड आधार पर श्रावकाचार पर सर्वप्रथम ग्रन्थ 'रत्नकरंडश्रावकाचार"५ लिखा। उसके बाद अनेक आचार्यों ने इस विषय पर ग्रन्थ लिखे हैं । इन ग्रन्थों की तुलना में साधु-आचार पर कम ही ग्रन्थ लिखे गये हैं ( सारणी-१)।
सारणी १. श्रावकाचार के प्रमुख जैन ग्रन्थ क्रमांक आचार्य
समय
ग्रन्यनाम कुंदकुंद १-२ सदी
चरित्र प्राभूत उमास्वामी २-३ सदी
तत्वार्थ सूत्र समन्तभद्र ५ सदी
रत्नकरंडश्रावकाचार आ० जिनसेन
सदी
आदि पुराण सोमदेव १० सदी
उपासकाध्ययन अमृतचन्द्र सूरि १० सदी
पुरुषार्थसिद्धयुपाय अमित गति-२ १०-११ सदी
अमितगतिश्राबकाचार वसुनंदि ११ सदी
वसुनंदिश्रावकाचार पद्मनंदि ११ सदी
पद्मनंदिपंचविंशतिका पं० आशाधर १२-१३ सदी
सागारधर्मामृत ११. पं० दौलतराम काशकीवाल १६९२-१७७२
जैन क्रियाकोष १२. आ० कुंथुसागर
२० सदी
श्रावकधर्म प्रदीप मूलाचार और भगवती आराधना के बाद १३वीं सदी का अनागार धर्मामृत ही आता है। इससे यह स्पष्ट है कि विभिन्न युगों के आचार्यों ने श्रावकों के आचार की महत्ता स्वीकृत की है। श्रावक वर्ग न केवल साधुओं का भौतिक दृष्टि से संरक्षक है, अपितु वहीं श्रमणवर्ग का आधार है क्योंकि उत्तम श्रावक ही उत्तम साधु बनते हैं। श्रावक श्रमण धर्म की प्रतिष्ठा का प्रहरी एवं रक्षक है। वर्तमान श्रावक भूतकालीन परम्परा से अनुप्राणित होता है और भविष्य की परम्परा को विकसित करता है। अतः आचार्यों ने उनके विषय में ध्यान दिया, यह न केवल महत्त्वपूर्ण है, अपितु प्रशंसनीय भी है। आहार को परिभाषा
श्रावक या मनुष्य के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का निर्माण अनेक कारकों से होता है : परम्परा, संस्कार, मनोविज्ञान, परिवेश, समाज एवं आहार-विहार आदि । इनमें आहार प्रमुख है। "जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन," "जैसा पीवे पानी, वैसी बोले बानी," आदि लोकोक्तियां इसी तथ्य को प्रकट करती हैं। यद्यपि ये देशकाल सापेक्ष हैं, फिर भी मनोवैज्ञानिक दृष्टि से ये अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं । धार्मिक दृष्टि से पल्लवित कर्मवाद के अनुसार, आहार शरीर, अंगोपांग, निर्माण, बन्धन, संघात, संस्थान एवं संहनन नामकर्म के उदय में निमित्त होता है। यह शरीरान्तर ग्रहण करने हेतु एकाधिक समय की विग्रहगति में भी होता है। वस्तुतः आहार शब्द को अवधारणा ही आ-समन्तात्-चारों ओर या परिवेश से, हरति-ग्रह्णाति-ग्रहण किये जाने वाले द्रव्यों के आधार पर स्थापित है। पूज्यपाद और अकलंक' ने तीन स्थूल शरीर और उनको चालित करने वाली ऊर्जाओं (छह पर्याप्तियों) के निर्माण के लिये कारणभूत पुद्गल वर्गणाओं ( सूक्ष्म, स्थूल, द्रव, गैस व ठोस द्रव्य ) के अन्तर्ग्रहण को आहार कहा है। फलतः, वर्तमान में आहार या भोजन के रूप में ग्रहण किये जाने वाले सभी द्रव्य तो आहार हैं ही। इसके अतिरिक्त, जैनमत के अनुसार, ज्ञान, दर्शन अादि कर्म और हास्य, दुख, शोक, भय, घृणा, लिंग, इच्छा, अनिच्छा आदि नोकर्म भी ऊर्जात्मक सूक्ष्म द्रव्य हैं । अतः
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