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२६२ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[खण्ड १. क्षेत्राय : देश के २५३ क्षेत्रों में रहने वाले क्षेत्रार्य कहलाते हैं। भौगोलिक दृष्टि से महत्वपूर्ण होने से इन क्षेत्रों का ज्ञान रोचक होगा-मगध (राजगृह), अंग (चम्पा), बंग (तामलुक), कलिंग (कंचनपुर), काशी (वाराणसी), कोशल (अयोध्या), कुरु (गजपुर), पंचाल (कंपिला), जंगल (अहिच्छत्र), सौराष्ट्र (द्वारका), विदेह (मिथिला), वत्स (कौशांबी), शांडिल्य (नन्दीपुरा), मलय (भद्दिलपुर), मत्स्य (विराट् नगर), वरण(अच्छापुरी), दशाणं (मृत्तिकावती), चेदि (शक्तिमती), सिन्धु-सौवीर (वीतभय नगर), शूरसेन (मथुरा), भंग (पावापुरी), पुरावर्त (माषानगरी), कुणाल (श्रावस्ती), लता देश (कोटिवष) तथा केकयाधं (श्वेतांबिका नगरी), कुशावतं (शौरीपुर)। इस सूची से स्पष्ट है कि आर्यावर्त पश्चिम (द्वारका), उत्तर (मथुरा आदि) एवं पूर्वी (बिहार, बंगाल व उड़ोसा) भारत का क्षेत्र माना जाता था। दक्षिण भारत म्लेच्छ देश माना जाता था क्योंकि म्लेच्छों के अनेक नाम इस क्षेत्र के अनुरूप हैं ।
२. जात्यायं : अंबष्ठ, कलिंद, विदेह, वेदग, हरित और चुंचुण-६ । ३. कुलार्य : उग्र, भोग, राजन्य, इक्ष्वाकु, ज्ञात, कौरव्य-६ ।
४. कर्माय : दूष्यक (वस्त्र), सौत्रिक (धागा), कासिक, सूत्र वैतालिक, भाँड-वैतालिक (वणिक्), कुम्हार ' और नर-वाहनिक-७ । इनमें कुछ व्यवसाय सम्बन्धी नाम और जोड़े जा सकते हैं।
५. शिल्पार्य : रफूगर, जुलाहा, पटवा, दूतिकार, पिच्छिकार, चटाईकार, काष्ठ-मुंज पादुकाकार, छत्रकार, वह बाह्यकार, पुच्छकार या जिल्दसाज, लेप्यकार, चित्रकार, दन्तकार, शंखकार, भांडकार, जिह्वाकार, वैल्यकार, आदि १९ प्रकार के शिल्पकार ।
६. भाषार्य : ब्राह्मी लिपि व अर्धमागधो भाषा बोलने वाले भाषायं कहलाते हैं। ब्राह्मी लिपि १८ रूपों में लिखी जाती है. अतः भाषार्य भी १८ होते हैं।
७. मानार्य : मतिज्ञानार्य, श्रुतज्ञानायं, अवधिज्ञानार्य, मनःपर्यय ज्ञानायं एवं केवल ज्ञानार्य-५ । ८. दर्शनार्य : सराग दर्शनार्य ( १० भेद ), वीतराग दर्शनार्य ( २ भेद )-२ ।
९. चरित्राय : सराग चारित्रार्य ( २ भेद ), वीतराग चारित्रार्य ( २ भेद )-२। ये गुणस्थानों पर आधारित है।
इस प्रकार निवास, कुल, कर्म, शिल्प, भाषा, ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि की विशेषताओं के आधार पर आयं मनुष्यों का यह वर्गीकरण है। यह माना जा सकता है कि सामान्यतः आर्य जैन हो सकते हैं।
म्लेच्छ-मनष्यों का वर्गीकरण उनके निवास क्षेत्र के आधार पर ही किया गया है। इनके क्षेत्र तत्कालीन भौगोलिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं, अतः यहाँ दिये जा रहे हैं। इनकी संख्या ५५ हैं । इसे पता चलता है कि आगमयुग में हमारा सम्पर्क किन क्षेत्रों में था। इन क्षेत्र वासियों के नाम शक, यवन, किरात, शबर, वर्बर, काय, मरुंड, भड़क, निन्नक, पक्करणिक, कुलाक्ष, गोंड, सिंहल, पारसक, आन्ध्र, अंबडक, तमिल, चिल्लक, पुलिंद, हारोस, डोम, पोक्काण, गंधाहारक, वाल्हीक, अज्झल, रोम, पास, प्रदूष, मलयाली, बन्धुक, चूलिक, कोंकणक, मेव, पल्लव, मालव, गग्गर, आभाषिक, कणवीर, चीना, ल्हासा, खस, खासी, नेदूर, मोंढ, डोम्बिलिक, लओस, वकुश, कैकय, अक्खाग, हूण, रोसक या रोमक, मरुक, रुत, चिलात और मौर्य है।
अन्तर्दीपज मनुष्यों के अट्ठाइस भेद बताये गये हैं। ये उनके शरीर रूपों पर निर्भर है। एकोरुक, अभाषिक, वैषाणिक, नांगोलिक, हय-गज-गो-शष्कुली-कर्ण, आदर्श-मेंढ-अयो-गो-अश्व-हस्ति-सिंह-व्याघ्र-मुख, अश्व-सिंह-कर्ण, अकर्ण, कर्ण-प्रावरण, उल्का-मेघ-विद्युत-मुख, विद्युत-धन-लष्ट-गूढ-शुद्ध-दन्त आदि उनके भेद हैं।
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