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________________ २०. पं. जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [खण्ड ३ पर मंत्र सामान्य पर स्वतन्त्र ग्रन्थ काफी अन्तराल बाद उपलब्ध होते हैं । संभवतः दसवीं सदी के कुमारसेन का 'विद्यानुशासन' इस दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। डा. त्रिपाठी ने ग्यारहवीं सदी के 'यंत्र-मंत्र संग्रह' और 'मंत्र शास्त्र' नामक दो अज्ञातकर्तृक ग्रन्थों का भी उल्लेख किया है। आजकल जो 'विद्यानुवाद' उपलब्ध है, उसकी प्रामाणिकता चर्चा का विषय है। अब तो 'लघु विद्यानुवाद' और 'मंत्रानुशासन' भी सामने आये हैं। यह स्पष्ट है कि ये दोनों ग्रन्थ जनेतर पद्धतियों से प्रभावित हैं, अतः उनको मान्यता देना दुरुह ही है। अनेक विद्वानों ने मंत्रों का संकलन तो दिया है, पर उनका मूल स्त्रोत नहीं लिखा । जन साहित्य के इतिहासों में भी मंत्र-विषयक साहित्य का विशेष उल्लेख नहीं मिलता। ऐसा प्रतीत होता है कि जैनों में उल्लेख योग्य मंत्रसाहित्य का निर्माण आठवीं सदी के बाद ही हुआ है जब 'लौकिक विधि' को प्रमाणता की अभिस्वीकृति दी गई। श्री देवोत के अनुसार जैन मंत्र शास्त्र पर लगभग चालीस ग्रन्थ पाये गये हैं। उन्होंने अपेक्षा की है कि इन ग्रन्थों का समुचित अध्ययन प्रकाशन होना चाहिये । शास्त्री के अनुसार मंत्रों के संबंध में अनेक प्रकार की सूचनायें णमोकार मंत्र से संबन्धित विवरणों एवं पुस्तकों में मिलती हैं। साहित्यचार्य ने अनेक प्रतिष्ठा-पाठों को भी इन सूचनाओं का स्त्रोत बताया है । शास्त्री ने नवकार-सार-श्रवणं, णमोकार मंत्र माहात्म्य, नमस्कार माहात्म्य ( सिद्धसेन ), नमस्कार कल्प, नमस्कार स्तव ( जिनकीति सूरि ), पंच परमेष्ठी नमस्कार स्तोत्र, वीज कोश तथा वीज व्याकरण ग्रन्थों के अतिरिक्त पूज्यपाद, सिद्धसेन, नेमचन्द्र चक्रवर्ती, वीरसेन, समंतभद्र, अमितगति, शिवार्य, बट्टकेर तथा अनेक प्रथमानुयोगी कथाओं के उद्धरण दिये हैं। अंबालाल शाह ने तेरहवीं सदी में सिंहतिलक सूरि रचित सूरिमंत्र सम्बन्धी 'मंत्रराजरहस्य' ग्रन्थ का नामोल्लेख किया है । साहित्याचार्य ने जयसेन, बसुनंदि ( १०-११ सदी ) एवं आशाधर ( १३ सदी ) के प्रतिष्ठापाठों के अतिरिक्त अनेक व्यक्तिगत स्त्रोतों से प्राप्त हस्तलिखित पाठों का उल्लेख करते हुए अनेक मन्त्रों की जानकारी दी है। लौकिक एवं धार्मिक क्रियाकलापों तथा उद्देश्यों के लिये मंत्र-जपों का जिस मात्रा में प्रयोग होता है, उस मात्रा में मन्त्र साहित्य और उससे सम्बन्धित आधुनिक दृष्टि से समीक्षित ग्रन्थों का नितांत अभाव है। प्रस्तुत लेख इस अभाव की पूर्ति का माध्यम बनेगा, ऐसी आशा है । मंत्र शब्द का अर्थ अनेक जैनाचार्यों तथा विद्वानों ने मन्त्र शब्द की परिभाषा लौकिक, आध्यात्मिक एवं व्याकरणिक दृष्टि से की है। इससे मंत्र शब्द के बहु-आयामी अर्थ प्रकट होते हैं। मन्त्र शब्द मन + त्रण-शब्दों से बना हैं । संस्कृत के अनुसार, यह शब्द ‘मन्' ( ज्ञान, विचार, सत्कार ) धातु में 'टुन' प्रत्यय लगाने पर प्राप्त होता है । मन्त्र एक स्वतंत्र धातु भी मानी जाती है। इन आधारों पर शास्त्र, व्याकरण एवं आधुनिक मान्यताओं के अनुसार मंत्र शब्द के निम्न अर्थ प्राप्त होते हैं : (१) उमास्वामी मंत्र जिन या तीर्थकर का शरीर ही है । (२) समन्तभद्र जो मंत्रविदों द्वारा गुप्त रूप से बोला जावे । (३) अभयदेव सूरि देवाधिष्ठित विशिष्ट अक्षर रचना । (४) निरुक्तिकार यास्क मंत्र शब्द बार-बार मनन क्रिया का प्रतीक है। (५) पंच कल्प भाष्य जो पठित होकर सिद्ध हो, वह मंत्र है। (६) व्याकरणगत अर्थ (i) आत्म अनुभूति का ज्ञान करने की विधि । (ii) आत्म अनुभूति पर विचार करने की क्रिया। (iii) उच्च आत्माओं या देवताओं का सत्कारतंत्र । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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