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१८. पं. जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[खण्ड
(४) प्राणायाम : प्राणायाम में सहायक निम्न क्रियाएँ अनुष्ठेय हैं : नेति, धौति, नौलि, घर्षण ( कपालभाति ) और
त्राटक । इन्हें षट्कर्म कहते हैं। प्राणायाम के ९ भेद हैं : लोभ विणेम, सूर्यभेदन, उज्जयी, शीतकारी, शीतलो, भस्त्रिका, मूर्छा, भ्रामणी
और प्रावनी। प्राणायाम में नौ प्रकार की विशिष्ट मुद्राएं होती हैं : महामुद्रा, महाबंध, महावेध, विपरीतकरणो, ताड़न, परिधानयुक्त परिचालन, शक्तिचालन, खेचरी और बज्रोली ।
अष्टांग योग के ये चार अंग श्रम (हठ ) साध्य होने से इन्हें हठ योग को संज्ञा भी दी जाती है। (५) प्रत्याहार (६) धारणा : इसकी दृढ़ता में सहायक निम्न मुद्राएँ अनुष्ठेय हैं : अगोचरो, भूचरो, चाचरो, शाम्भवो, उन्मती, कुंभक । (७) ध्यान : सालंबन ध्यान, निरालंबन ध्यान । (८) समाधि: संप्रज्ञात और असंप्रज्ञात ।
. अष्टांग योग के इन चार अंगों को संज्ञा 'राजयोग' है। एक हो विषय या लक्ष्य पर ध्यान, धारणा और समाधि के निक्षेपित करने पर त्रितयो को 'संयम' कहा जाता है।
योग के उपरोक्त अष्टांगों के वर्णन के साथ, हरिभद्र ने यौगिक विकास एवं कर्म-मल के क्षय तथा सम्यग् दृष्टि की प्राप्ति के आठ चरण बताये हैं । इन चरणों में क्रमिक आत्मशोधन होता है। इन चरणों को 'दृष्टि' कहा गया है । योग से सम्बन्धित होने से इन्हें 'योग दृष्टि' कहते हैं। इनकी संख्या भी आठ है-मित्रा, तारा, बला, दिप्रा, स्थिरा, कान्ता, प्रभा और परा। इनका स्वरूप निरूपण करते हुए उन्होंने लिखा है कि ये दृष्टि याँ सत्-दृष्टा पुरुष को दृष्टि को विशदता
एवं निर्मलता के विकास की क्रमिक प्रतीक है। इनको उत्तरोत्तर सूक्ष्मता एवं तीक्ष्णता को समझाने के लिये उन्होंने . इनकी तुलना सहज उपलब्ध वदार्थों को प्रभा चमक (और उसके स्रात और प्रभाव) से की है। उन्होंने बताया है कि
आठ योग दृष्टियाँ क्रमशः घास, कन्डे, काष्ट की अग्नि की चमक, दीप, रत्न, तारक, सूर्य और चन्द्र को आभा के समान होती है। इन दृष्टियों से खेद, उद्वेग, क्षेप, उत्थान, भ्रान्ति, अन्यमुद, रुक् और आसंग नामक आठ दोष दूर होते हैं और अद्वेष, जिज्ञासा, सुश्रषा, श्रवण, बोध, मोमांसा, परिशुद्ध प्रतिपत्ति एवं प्रसि नामक सदगणों का सहचार हाता है।
पर दृष्टियाँ भ्रंशयुक्त हैं। इन्हें प्राप्त कर व्यक्ति इससे भ्रष्ट भी हो सकता है। पतन होता ही हो, ऐसा नहीं है । पतन की सम्भावना के कारण ये चार दृष्टियां सापाय-अपाय या बाधायुक्त कहीं जाती है। शेष दृष्टियाँ बाधा रहित है । योग दृष्टि समुच्चय के अनुसार इनका वर्णन यहां दिया जा रहा है।
१. मित्रा दृष्टि-इस दृष्टि के प्राप्त होने पर साधक सत् श्रद्धा का आर उन्मुख हाता है, उसे बोध तो होता है पर वह मंदता लिये रहता है । मित्रा दृष्टि वाला साधक योग के प्रथम अग, यम के विविध रूपों का प्रारम्भिक अभ्यास कर लेता है । व्यक्ति आत्मान्नति के अचूक हेतुभूत योग वोजों का स्वीकार करता है ।
मित्रा दृष्टि में दर्शन मोह, सिथ्यात्व या अविद्या के विपर्यास में आत्मगुणों का स्फुरण तथा अन्तर्विकास की दिशा में प्रथम उद्वेलन होता है। यह अध्यात्म विकास को यथावृत्तिकरण गुणस्थान की अवस्था का प्रमुखता का प्रतीक है। यह आध्यात्मक योग की पहली दशा है जिसमें दृष्टि पूर्णतः तो सम्यक नहीं हो पाती पर यहाँ से अन्तर्जागरण एवं गुणात्मक प्रगति की यात्रा का शुभारम्भ हो जाता है । इस दृष्टि में गुणियों के प्रति आदर, अनुकरण, दुखियों के प्रति करुणा एवं सत्कार्यों के प्रति रुझान उत्पन्न होता है।
२. तारा दृष्टि-इससे योग का दूसरा अंग-नियम-सधता है। शोच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और आत्म चिन्तन जीवन में फलित होते हैं। आत्महित की प्रवृत्ति में उत्साह एवं तत्वोन्मुखी जिज्ञासा उत्पन्न होतो है । इस दृष्टि
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