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१३२ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[खण्ड
(v) त्वचावरोधमापी से त्वचावरोध मापना। (vi) वायो-फीड-बैक यन्त्र से परीक्षण । (vii) इलेक्ट्रो-एन्सेफिलोग्राफ द्वारा परीक्षण । (viii) मैग्नेटिक-रेजोनेन्स-इमेज उपकरण । (ix) मल, मूत्र एवं रक्त का रासायनिक विश्लेषण । इन उपकरणों की विविधता से यह स्पष्ट है कि ध्यान सम्बन्धी शोध एक सामूहिक उपक्रम है ।
भारत में ध्यान-शोध का प्रारम्भ १९१० में हुआ था। डा. आनन्द, डा० गोपाल (पाण्डुचेरी), डा० लक्ष्मीकान्तन (मद्रास), स्वामी कैवल्यानन्द (पुणे) आदि इस शोध के अग्रणी थे। अब तो अनेक केन्द्रों पर अगणित व्यक्ति इस दिशा में शोध कर रहे हैं। शरीर-तन्त्र की रचना
ध्यान शरीर तथा मन-दोनों को प्रभावित करता है। अतः यह आवश्यक है कि हम इन दोनों घटकों के विषय में संक्षिप्त जानकारी रखें । भारतीय शास्त्रों में शरीर-तन्त्र को अष्टांगो (२ पैर, २ हाथ, वक्ष, पेट, पीठ और शिर) बताया गया है। ये सभी दृश्य अवयव हैं। इन अंगों के भीतरी रूपों को भी अस्थि, स्नायु, शिरा, मांसपेशी, त्वचा, आंत्र, मल गर्भस्थान, नख, दन्त तथा मस्तिष्क के माध्यम से नामांकित किया गया है। यही नहीं, वहाँ वात, पित्त, कफ, मस्तिष्क, मेद, मल, मूत्र, बीर्य एवं वसा के परिमाणों को भी बताया गया है । आधुनिक शरीर-विज्ञानियों ने भी शरीर के वाह्याभ्यंतर संरचन का सूक्ष्म अध्ययन किया है । तुलना को दृष्टि से, अस्थियों एवं नाड़ियों की संख्या के शास्त्रीय विवरण इनके वर्णनों से मेल नहीं खाते। साथ ही, रक्त, वीर्यादि शरीर स्त्रावों की शास्त्रीय परिमाणात्मकता भी पर्याप्त भिन्न है । फिर भी, इनके विषय में निरीक्षण और परिमाणात्मकता को चर्चा हमारे आचार्यों को विचार एवं मेधाशक्ति की ओर तो संकेत करती ही है।
आधुनिक शरीर-शास्त्री सम्पूर्ण शरोर-तन्त्र को दो आधारों पर विभाजित करते है-(i) स्थूल और (ii) शरीर-क्रियाएँ । स्थूल शरीर तो ये भी प्रायः अष्टांगी हो मानते हैं। शरार-क्रियात्मक दृष्टि से, वे इसे नौ तन्त्रों में विभाजित करते हैं। इसके अन्र्तगत (i) अस्थि तन्त्र (ii) श्वसन तन्त्र (iii) उत्सर्जन तन्त्र और (iv) प्रजनन तन्त्र वाह्य रूप से निरीक्षित किये का सकते हैं। पर (v) पेशीय (vi) पाचन (vii) रक्तपरिसञ्चरण (viii) स्नायविक तथा (ix) ग्रन्थि तन्त्र अन्तःशरीर में ही दृष्टिगोचर होते हैं। इस विभाजन का मूल आधार शरीर में होने वाली विभिन्न प्रकार की भौतिक या रासायनिक क्रियाएँ हैं । इन्हें समग्रतः जाव रासायनिक क्रियायें कहा जाता है ।
मानव जीवन को स्वस्थ व सुखो बनाने के लिये सामान्यतः शरीर के सभा तन्त्र एक-समान उपयोगी हाते हैं। वे आदर्श प्रजातन्त्रीय रूप से एक-दूसरे के कार्यों में हस्तक्षेष किये बिना अविरत रूप से अन्य तन्त्रों को सहयोग देते रहते हैं। आत्मशक्ति के विकास में स्नायुतन्त्र तथा ग्रन्थितन्त्र महत्वपूर्ण है। ये दोनों हा तन्त्र मस्तिष्क में मुख्यतः औ शरीर के अन्य अवयवों में सामान्यतः होते हैं ।
स्नायविक तन्त्र दो प्रकार का होता है-स्वायत्त और केन्द्रीय । स्वायत्त स्नायुतन्त्र बहिर्वाहो न्यूरानों का बना होता है जो आमाशय, आँत, हृदय, मूत्राशय एवं रक्तवाहिकाओं को पेशियाँ प्रदान करते हैं। ये यकृत एवं अग्न्याशय को भी प्रेरित करते हैं । यह अनुकम्पो एवं परानुकंपो कोटि का तन्त्र होता हैं और जीवन मशीन चलाने के लिए एक्सेलरेटर और ब्रेक का काम करता है। इनका कार्य उत्तेजना और शिथिलोकरण है। इनके इस कार्य से तन्त्र में संतुलन बना रहता है।
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