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अंग्रेजी निबन्धों का हिन्दी सार
१. अपेक्षावाव और उसका व्यावहारिक स्वरूप -- डा० डी० सी० जैन, न्यूयार्क, यू० एस० ए०
सापेक्षतावाद विविध प्रकार के दृष्टिकोणों के प्रति सहिष्णुता, समन्वय, तर्कसंगति एवं अहिंसक भावना का प्रेरक है। यह व्यावहारिक जीवन को सुख-शान्तिमय बनाने का यत्न है। यह हमें विभिन्न जटिल अवसरों पर तर्कसंगत निर्णय लेने की क्षमता प्रदान करता है । इसके सात रूप है । ये विभिन्न वास्तविकताओं के परस्पर विरोधो-से गुण पर्यायों की समुचित व्याख्या करते हैं । यह विरोध प्रतीति दृष्टिकोण सापेक्ष है।
लेखक ने विद्युत आवेश द्वारा चुम्बकीय क्षेत्र की उत्पत्ति, प्रकाश ऊर्जा के तरंकणी रूप, प्रायिकता की धारणा, सूक्ष्म कणों के गुणों का अनिश्चायक निरूपण आदि के समान जटिल प्राकृतिक पर वैज्ञानिकतः निरीक्षित परिणामों की सापेक्षतावाद के आधार पर व्याख्या करते हुए यह प्रश्न उठाया है कि यह हमारे धार्मिक जीवन में किस प्रकार उपयोगी है । इसके आधार पर उन्होंने नई पीढ़ी के समक्ष प्रस्तुत कुछ प्रारूपिक समस्याओं के समाधान भी दिये हैं ।
वर्धमान संघर्षशील जगत में धर्म दोनों ओर से पिट रहा है। इस पर आस्था रखने के लिये समन्वय एवं विरोधि-समागम मूलक अपेक्षावाद की आज महती आवश्यकता है। अन्य धर्मों की तुलना में जैन-धर्म की मोह-कर्म दूर कर सदृष्टि के लिये प्रयत्नशील बनाने की विशेषता इसकी व्यावहारिकता की प्रेरणा है । यह पूर्व-पश्चिम की प्रवृत्तियों के आभासी विरोध को तर्कसंगत रूप से शमन कर तदनुरूप प्रवत्ति में भी सहायक है।
२. पूर्व और पश्चिम के दार्शनिक दृष्टिकोणों का विश्लेषण एवं मूल्यांकन
डा० डोनाल्ड एच० विशप, पुलमैन, यू० एस० ए० पाश्चात्य दार्शनिक दृष्टिकोण के मूलभूत आधार द्वंद्वात्मकता, द्वतरूपता, इन्द्रियज्ञान एवं तर्कसंगति हैं। ये वर्गीकरण, विभेदन, विरुद्धत्त्व एवं विशेषत्त्व की धारणाओं को प्रतिफलित करते हैं। इन आधारों पर पश्चिमी दर्शन सभी वस्तुओं को भौतिक, यांत्रिक एवं इन्द्रिय या यन्त्रगम्य मानता है । ये ज्ञेय है, वर्गीकृत्य है और फलतः सकारात्मकतः वर्णनीय हैं। इससे विश्व की भौतिक जागृति हुई है। पर इन धारणाओं से मनुष्य ने अपनी आत्मा लुप्त कर दी है, ये मानव का सत्यानाशं भी कर सकती हैं।
___इसके विपर्यास में, पूर्वी दर्शनों में विविधता अधिक है। चीनी दर्शन के यांग और यिन अपवर्जना-रहित है, लोचदार हैं । अन्य दर्शन भी बहुविचारवादी हैं। इनमें जैन दर्शन सर्वोत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करता है। वह बहुत्ववादी है पर उसका यह स्पष्ट मत है कि परिवेश की विविधता से वास्तविकता के विषय में निरपेक्ष धारणा असंभव है । अनेक पी दर्शनों में समवेदिता की धारणा भी है जिसका एक रूप अद्वैतवाद है। एक ओर जैनों का अनेकान्तवाद निरपेक्ष ज्ञान की सम्भावना को निरस्त करता है, वहीं वह सर्वचैतन्यवाद की प्रस्थापना करता है। यह पश्चिम के उपयोगितावादी दृष्टिकोण के विपरीत है।
पूर्वी दर्शनों में मानव और प्रकृति के सम्बन्ध भी, पाश्चात्यों से, विपरीत है । जहाँ पश्चिम मानव को प्रकृति का स्वामी मानता है, वहीं पूर्वी दर्शन स्वयं को प्रकृति का एक घटक मानता है। वह प्रकृति को असीम अतः पूर्णतः ज्ञेय नहीं मान पाता। फलतः वह उसके प्रति सहृदय बना हुआ है। इन आभासी विरोधों के बावजूद भी आज का दर्शन विविधता अतएव शान्ति की बहु-सम्भाव्यता की स्वीकृति की ओर उन्मुख है।
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