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जैन धर्म : भारतीयों की दृष्टि में ३१
आत्मा के साथ जुड़ कर उसे सरागी संसार में बाँध देता है । यद्यपि कर्म भौतिक है, पर यह इतना सूक्ष्म है कि इन्द्रियग्राह्य नहीं है। इसी कर्म के कारण जीव अनादि भूत से वर्तमान तक संसार में बना हुआ है । फलतः यद्यपि कर्मबन्ध अनादि है, पर इसे समाप्त किया जा सकता है। आत्मा तो मुक्त और शक्तिवान् है। आत्मा के शुद्ध स्वभाव प्राप्त होते ही कर्म नष्ट हो जाते हैं। वेदान्ती भी अविद्या या अज्ञान को अनादि और सान्त मानते हैं।
आत्मा और कर्म का बन्ध किसी वाह्य कारण से नहीं होता। यह तो कम से ही होता है। जब आत्मा वाह्य जगत के सम्पर्क में आता है, उसमें राग-द्वेष की इच्छाओं के समान अनेक मनोवैज्ञानिक आवेग उत्पन्न होते हैं । ये आत्मा के सहज लक्षणों को ढंक देते हैं और कमंप्रवाह को प्रेरित करते हैं। बाद में यह उसे परिवेष्ठित कर लेता है । आत्मा में सूक्ष्म कर्मों के प्रवाह को आस्रव कहते हैं। यह जनों का एक विशिष्ट पारिभाषिक शब्द है । यह कर्मबन्ध का पहला चरण है। इसका दूसरा चरण कर्मबन्ध स्वतः है, जिसे बन्ध कहते हैं। इसमें कर्म के अणु आत्मा के कार्माण शरीर का निर्माण करते हैं। इससे आत्मा कर्म-पूरित हो जाता है। जीव का भौतिक शरीर मृत्यु के साथ समाप्त हो जाता है, पर कार्माण शरीर बना रहता है। यह कार्माण शरीर हिन्दुओं के सूक्ष्म शरीर का समरूप है। यह भी निर्वाण-प्राप्ति के पूर्व तक रहता है।
संवर या संयम से कर्म से मुक्ति होती है। संयम के अभ्यास से नये कर्मों का आस्रव रुक जाता है। इससे नैतिक तथा आध्यात्मिक अनुशासन की प्रेरणा मिलती है। यह पूर्व कर्मों को निर्झरित करता है। निर्जरा के समय पुनर्जन्म समाप्त हो जाता है और प्राथमिक मुक्ति प्राप्त होती है। पूर्ण मुक्ति के लिये दो चरण बहुत आवश्यक है। प्रथम चरण अर्हत पद की प्राप्ति है। इसमें कर्म-मुक्त ज्ञानी जीव संसार में बना रहता है, वह वीतरागी होकर मानवता की सक्रिय रूप में सेवा करता है । यह हिन्दुओं की जीवन्मुक्त दशा का प्रतिरूप है । द्वितीय चरण में जीव संसार छोड़ देता है । इस दशा में यह अकर्म रहता है, पूर्ण रहता है । इस दशा को सिद्ध दशा कहते हैं। यह अनन्त ज्ञान और शान्ति का निलय है। मोक्ष-प्राप्ति के उपाय
मोक्ष सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान एवं सम्मक् चारित्र की त्रिरत्नी से प्राप्त होता है । ईसाइयों की विश्वास, उपदेश एवं प्रवृत्ति की त्रयी इसी का एक रूप है। ये तीनों ही एक इकाई हैं। सम्यक् दर्शन जैनों के उपदेशों में दृढ़ विश्वास का प्रतीक है। सम्यक् ज्ञान जैन सिद्धान्तों का समुचित परिज्ञान है। सम्यक् चारित्र जैन सिद्धान्तों के अनुरूप जीवन यापन की व्यावहारिक विधि है। इनमें सम्यक् दर्शन नैतिक एवं आध्यात्मिक जीवन मूल्यों की आधार शिला है। इसके लिये अज्ञान, अंधविश्वास या मूढ़ताओं से मुक्त होना आवश्यक है । पवित्र नदियों में स्नान करना, काल्पनिक देवताओं की पूजा तथा अनेक प्रकार के यज्ञ यागादि करना आदि इसके उदाहरण हैं। इनके साथ ही, सम्यक् दर्शन के लिये निरभिमानता भी आवश्यक है । सम्यक् दर्शन से सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र स्वतः स्फूर्त होते हैं ।
___ सम्यक् चारित्र में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-ये पाँच ब्रत समाहित होते हैं। जब ये सीमारहित होते हैं, तब महाब्रत कहलाते हैं। इनका पालन साधु करते हैं। इस प्रकार जैन धर्म में साधु जन के आचार में अन्तर माना गया है।
अन्य भारतीय पद्धतियों के समान ही, जैन धर्म में भी मनुष्य जन्म को आत्म-पूर्णता का साधन माना गया है। स्वर्ग के देव और देवियों को भी, मोक्ष प्राप्ति के लिये, मनुष्य जन्म लेना अनिवार्य है । इसीलिये मनुष्य योनि में जन्म लेना पुण्याशीर्वाद माना जाता है।।
ई० डब्लू. होपकिन्स ने ईश्वर विरोध, मानव पूजन और जीव संरक्षण के जैन सिद्धान्तों पर अपनी पुस्तक में व्यंग्य किया है। इस प्रकार तो किसी भी धर्म के विषय में कहा जा सकता है। जैन धर्म ने पराब्रह्माण्डीय एव
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