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३० पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[खण्ड
जैन धर्म के मुख्य सिद्धान्त सभी जैन सम्प्रदायों में समान हैं। ईसवी सदी के प्रारम्भ होते होते जैन दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायों में बँट गये। इसका कारण साधुओं के जीवन और आचार के नियमों से सम्बन्धित कुछ मतभेद थे। इसमें मुख्य यह है कि दिगम्बर शरीर की चेतना से रहित होकर निर्वस्त्र या नग्न रहते थे जब कि श्वेताम्बर श्वेत वस्त्र पहनते थे ।
अंग, पूर्व और प्रकरण ग्रन्थ इनके प्रमुख धर्म ग्रन्थ हैं। उत्तरवर्ती काल में भी संस्कृत और प्राकृत में अनेक धर्म ग्रन्थ लिखे गये। इनमें जैन धर्म और दर्शन की व्याख्यायें हैं। भारत में लगभग पन्द्रह लाख जैन है । वे शान्तिप्रिय हैं । उनका हिन्दुओं से कोई टकराव नहीं है । फलतः सामान्यजन उन्हें हिन्दू ही मानते हैं । जैन धर्म का लक्ष्य
जैन धर्म विश्व के आदि कर्ता को नहीं मानता। यह विश्व के आदि और अन्त को अविचारित और असंगत मानता है। विश्व में विद्यमान चेतन और अचेतन पदार्थ अनादि और अनन्त हैं। ब्रह्माण्ड की प्रकृति की व्याख्या के लिए दैववाद का आश्रय आवश्यक नहीं हैं। स्रष्टि का बाह्य अस्तित्व ही उसकी स्वतन्त्र सत्ता के लिये पर्याप्त है। ईश्वर-कर्तृत्व समर्थक तर्कों में जैनों को अनवस्था दोष दिखता है । जैनों के लिए स्रष्टिकर्तृत्व की कोई समस्या ही नहीं है। इसके अध्यात्मवाद में न ही ईश्वर का स्थान है और न ही विश्व के आदिमान होने की कल्पना है । फिर भी, यह प्रत्येक आत्मा की पूर्णता और अनन्त शक्ति में विश्वास करता है । यह पूर्ण आत्मा ही परमात्मा है । इसकी हम पूजा और अर्चा करते है। प्रत्येक आत्मा में परमात्मा बनने की क्षमता है। इस मान्यता के कारण ही जैन धर्म अनीश्वरवादी नहीं माना जा सकता । यह आत्मा की अनन्त शक्ति एवं उसको प्राप्त करने की क्षमता में विश्वास करता है।
जैनों का कथन है कि राग-द्वेषादि कषायों को दमित करने से कर्म-बन्ध टूट जाता है। इससे आत्मा में परम पवित्रता आती है। इससे उसमें अनन्त ज्ञान, सुख और वीर्य प्रकट होते हैं और वह परमात्मा हो जाता है। इस क्षमता के कारण भूतकाल में अनेक परमात्मा हो गये हैं और भविष्य में भी होते रहेंगे । एक श्रद्धालु जैन की प्रार्थना निम्न रहती है:
मोक्षमार्गस्य नेतारं, मेत्तारं कर्मभूभृतां ।
सातारं विश्वतत्वानां, वंदे तद्गुणलब्धये ॥ इस तथ्य से यह निष्कर्ष निकलता है कि जैन मानवी ईश्वर में विश्वास करते हैं। यह धारणा हिन्दुओं के अवतारों या ईसाइयों के ईश्वरपुत्र से काफी भिन्न है । उनकी पूजा का मुख्य उद्देश्य परमात्मा बनना है ।
. जैनों में जीवों की अनेक कोटियां होती हैं। जिन्होंने अनन्त चतुष्टय प्राप्त कर निर्वाण प्राप्त कर लिया है, वे उच्चतम कोटि के जीव हैं-सिद्धपरमेष्ठी। इसके बाद अहंत आते हैं। इन्होंने केवल ज्ञान प्राप्त कर लिया है। ये मानवता की सेवा करना चाहते हैं । दयालु और स्नेही होते हैं। ये निर्वाण प्राप्त करने तक धर्मोपदेश देते हैं । ये विभिन्न युगों में मानव के हित के लिये अवतरित होते है । इनके अतिरिक्त अन्य तीन कोटियों में (आचार्य, उपाध्याय और साध) शिक्षक या उपदेशक होते हैं। इन्होंने शरीर और आत्मा के भेद ज्ञान का किचित् अनुभव कर लिया है। जीवों की इन पांचों ही श्रेणियों का चरम लक्ष्य अनन्त चतुष्टय के विभिन्न चरण प्राप्त करना है।
जीवन का सर्वोत्तम विकास सिद्ध परमेष्ठियों में होता है। वे परम निरपेक्ष, निर्विकार, वीतरांग और वीतकर्म
होते हैं।
आध्यात्मिक दृष्टि से, मोक्ष कर्मबंध तथा पुनर्जन्म से मुक्ति पाने की चरम स्थिति है । अन्य भारतीय विचारधाराओं के अनुसार, जैन धर्म भी कर्मवाद और पुनर्जन्म मानता है। पर जैन कर्म को भौतिक पदार्थ मानते हैं जो
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