________________
९२ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[ खण्ड
अनिवार्यता बताई गई है, पुरुषार्थों का भी विस्तार है जिनमें उद्यम, उद्योग और उन्नति के प्रयत्न समाहित हैं। ये पुरुषार्थ मानवगति में ही साध्य हैं । यह तो ठीक है, पर वे पूर्णतया पुरुष वर्ग द्वारा ही साध्य हैं ( निर्वाण तो केवल पुंवेद से ही मिलता है ), इसलिये पुरुषार्थ हैं, इसमें किंचित् पारिभाषिक सुधार वांछनीय है। सामान्यतः पुरुषार्थ प्रयत्न का दूसरा नाम है। यह अपनी योग्यतानुसार सभी कर सकते हैं। श्रावक के अन्य कार्यों में मृतक संस्कार एवं सूतक-अवधि पालन की व्याख्या उत्तम हुई है।
टीकाकार ने 'विलया दंडवत' की प्रवृत्ति की निन्दा की है और अहिंसाधर्म के प्रचार के लिये पश्चिम यात्रा का समर्थन किया है। उनके अनुसार धर्म प्रभावना से ही मानव जन्म सफल होता है। यद्यपि आगमों में अध्यात्म विद्या को ही मूल विद्या माना गया है, फिर भी यहाँ न्याय, व्याकरणादि उपयोगी विद्याओं या पापश्रुत के अध्ययन को भी कर्तव्य बताया गया है। उनका यह कथन मननीय है कि शास्त्र स्वाध्याय को शस्त्र-ग्रहण के समान कषाय पोषण का माध्यम नहीं बनाना चाहिये ।
स्वाध्याय के अतिरिक्त मौन, जप और ध्यान के लाभ और अभ्यास का सुझाव श्रावक को दिया गया है। प्राचीन जीवन पद्धति के ये अनिवार्य तत्व थे। इस सदी में पश्चिमी प्रभाव से, इनकी उपेक्षा होने लगी है। वैज्ञानिक शोधों से पुनः इस ओर जागृति उत्पन्न हो रही है । श्रावकों के व्रत
प्राचीनशास्त्रों में श्रावकों के १२ व्रतों ( ५ अणुव्रत, ३ गुणब्रत, ४ शिक्षाबत ) का वर्णन है। इनमें कहीं सल्लेखना का समावेश है और कहीं वह पृथक् है । अचार्यश्री ने सल्लेखना को व्रतों के अतिरिक्त मान्यता दी है। पांच पापों के विपरीत धावकों के लिये पंच व्रतों का विधान है। सामान्यत: चौथे व्रत को शास्त्रों में ब्रह्मचर्य कहा गया है पर इस ग्रन्थ में उसे परस्त्रीत्याग, स्वदारसंतोष का नाम दिया गया है। यह श्रावक के लिये उपयुक्त भी है क्योंकि ब्रह्मचर्य का अर्थ अत्यन्त सूक्ष्म और अध्यात्म प्रधान माना जाता है । इस प्रकरण में कामवासना को संसार एवं व्रतभंग का प्रधान कारण बताया गया है। इसका नियंत्रण और नियमन व्यक्ति और समाज की स्वस्थ प्रगति के लिये आवश्यक है। इसी प्रकार, पाँचवें व्रत का नाम ग्रन्थकार ने परिग्रह-परित्याग रखा है पर टीकाकारने उसे परिग्रह परिमाण के रूप में व्यक्त किया है। इसके लिये आशा और असंतोष रूप में अग्नि को संतोषरूपी अमत से शान्त करना आवश्यक है। यदि धार्मिक जीवन बिताया जावे, तो परिग्रह परिमाण स्वतः ही हो जाता है। परिग्रह में वृद्धि या असीमता का कारण धार्मिक जीवन हो ही नहीं सकता। टीकाकार का सुझाव है कि यदि किसी कारणवश परिग्रह (धन, संपत्ति) अधिक हो गया है तो उसका सदुपयोग धार्मिक एवं साहित्यिक सेवा में ही करना चाहिये।
यह पाया गया है कि विभिन्न शास्त्रों में भोगोपभोग व्रत के अनेक नाम हैं। इसकी स्थिति भी कहीं गाणवतों में है. तो कहीं शिक्षाव्रतों में। इस ग्रन्थ में इसे शिक्षाक्त माना गया है। इस व्रत के द्वारा परिग्रह-परिमाण को और भी क्षीण करने का प्रयत्न किया जाता है। यद्यपि भोग और उपभोग के अर्थ भिन्न-भिन्न है, पर इस व्रत के अतीचार मुख्यतः आहारों से ही संबंधित है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे उपभोग संबंधी कोई अतीचार ही न हों। सामान्यतः सचित्त का अर्थ सजीव या हरित वनस्पति से लिया जाता है । सचित्ताहार का त्याग पांचवीं प्रतिषा में होना चाहिये, फिर उसे व्रत प्रतिमा का अतीचार क्यों बताया गया है ? टीकाकार के अनुसार भक्ष्यता की समयसीमा से बाहर भक्ष्यों को खाना भी सचिताहार है। अत: खाद्य पदार्थों को समय-सीमा में ही खाना चाहिये । पाँचवीं प्रतिमा में उनका ब्रत या त्याग ही अपेक्षित है, वहाँ समय-सीमा का कोई प्रश्न ही नहीं उठता । कुछ विद्वान् यह भी मानते हैं कि यह अतीचार मूलगुणों का होना चाहिए। क्योंकि मूलगुण पाक्षिक श्रावक के सातिचार ही
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org