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श्रावक धर्मप्रदीप टीका : एक समीक्षा ९१
परिग्रह का वर्णन अन्य पापों की तुलना में कम किया है, जबकि यह भी आधुनिक व्यक्ति तथा समाज में चर्चा का विषय रहता है। परिग्रह के अन्तर्गत धन-धान्य भी आते हैं। यह स्वाभाविक प्रश्न है कि जब परिग्रह पाप है, तो धनी होना पुण्य का फल क्यों माना जाता है ? टीकाकार इसका उत्तर देते हुए बताते हैं कि लौकिक सुख-उत्पादक धन पुण्य का फल है और आकुलता एवं असाता उत्पादक धन पाप का फल है। यहाँ भी अनेकान्त दृष्टि का उपयोग कर दोनों प्रकार की स्थितियों की व्याख्या की गई है। वस्तुत: सुख और दुःख की अनुभूति अंतरंग पवित्रता पर निर्भर करती है। इसकी पहिचान बड़ी जटिल है। यह स्पष्ट है कि यदि अपवाद छोड़ दें, तो परिग्रह की पुण्यात्मकता अत्यंत विवादग्रस्त है। यही तो व्यक्ति, परिवार, समाज एवं देश में अशान्ति की जन्मदाता है । प्रत्यक्षतः सुखी दिखने वाले व्यक्तियों के वस्तुतः सुखी होने के तथ्य की सत्यता वर्धमान मनोदैहिक एवं काय-मानसिक रोगियों की संख्या से मूल्यांकित की जा सकती है । इसलिये तो परिग्रह परिमाण, श्रावक के लिये व्रत माना गया है।
अष्ट मूलगुण
समन्तभद्र, आशाधर और मध्यवर्ती आचार्यों की तुलना में कुंथुसागर आचार्य अष्ट मूलगुणों की धारणा से भक्ष्याभक्ष्य विचार को व्यक्त करते हैं। वे आठ अभक्ष्य ( तीन मकार, पंच उदुंबर फल ) पदार्थों के त्याग को मूलगुण कहते हैं। व्याख्या में टीकाकार ने अभक्ष्यता के पांच आधार बताये हैं। जैन क्रिया कोषों में वर्णित बाइस अभक्ष्यों को इन्हीं आधारों में समाहित किया है : १. त्रस जीव घात, २. बहु-स्थावर घात, ३. मादकता उत्पादन ४. लोक विरुद्धता, तथा ५. रोगोत्पादकता।
___ अभक्ष्य भक्षण से बुद्धि भ्रष्ट होती है, दया धर्म नष्ट होता है, क्रूरता उत्पन्न होती है, लोभादि कषायों का प्राबल्य होता है। यह मत क्षेत्र, काल एवं देश भेदापेक्षया ही ग्रहण करना चाहिए अन्यथा भारत के अन्य मतावलंबी ऋषिमुनियों की बात तो छोड़िये, सारा पश्चिमी जगत् दुर्गुणी माना जाना चाहिये जिसके बुद्धिकौशल एवं चमत्कारों का हम अन्धानुसरण-जैसा कर रहे हैं। वस्तुतः उपरोक्त आठ अभक्ष्य भारतीय आहार के सामान्य घटक कभी नहीं रहे, ये तो आकस्मिक घटक हैं। इनके न खाने से उपरोक्त दुर्गुणों में निश्चित रूप से कमी देखी गई है। फलतः श्रेयो मागियों के लिये इन्हें उत्सर्ग रूप से ही अभक्ष्य माना गया है।
इसी प्रकार अज्ञात फल, तुच्छ फल एवं शुष्कीकृत फल व सब्जी, भ्रमरादि युक्त फल आदि की परीक्षा द्वारा देखभाल कर, शोधित कर ही खाने की बात कही गई है। बस जीवघात के निवारण के लिये यह अनिवार्य है। ग्रन्थ में आहार के समय के दर्शन के दस, स्पर्शन के बीस, श्रवण के दस अन्तरायों का भी विस्तार है। इनके आने पर भोजन का त्याग मात्र करना श्रावक का लक्षण नहीं है, उन अन्तरायों का, उपसर्गों का निराकरण उसका प्रथम कर्तव्य है। इस प्रकरण में ग्रन्थान्तरों में वर्णित अन्य अन्तरायों का भी संकेत दिया गया है।
श्रावक की दिनचर्या
प्रस्तुत ग्रन्थ में श्रावक की आदर्श दिनचर्या का विवरण दिया है। इसमें यह महत्त्वपूर्ण बात कही गई है कि गार्ह स्थिक अशुद्धियों के कारण प्रातःकाल उठकर मंगलवाक्यों का उच्चारण नहीं, स्मरण करना चाहिये। संभवतः स्मरण मानसिक, आध्यात्मिक या अन्तःक्रिया है जबकि उच्चारण शारीरिक क्रिया है। शौच, दन्तधावन, तैलमर्दन एवं स्नान के बाद पूजन/दर्शन करना चाहिये । शास्त्रोपदेश सुनना चाहिये। इसके बाद भोजन और फिर नीति-पूर्वक आजीविका के कार्य । सांध्य भोजन, शास्त्रोपदेश और फिर मंगलवाक्यों के स्मरण के साथ रात्रि विश्रान्ति । श्रावकों के आत्मिक विकास के लिये बारह भावनाओं का चिन्तन तथा क्षमा ही दस धर्मों का पालन है। परिश्रम करने का अभ्यास करते रहना चाहिये। ये उत्तरवर्ती साधु जीवन के पोषक हैं। श्रावक के षोडश-संस्कारों की भी
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