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अध्यात्म अमृत-कलश : एक समीक्षा ८५
कारण सत्यासामार्थता, संशय-विपर्यय अनध्यवसाय के अभाव से व्यवहार नय की सम्यग्नयता एवं सापेक्ष सत्यता, व्यवहार चारिय की शुभोपयोगिता, मोक्षमार्ग निमित्तता एवं पुण्य बंधकता, जीव की कर्माधारित संसरणशीलता की अयथार्थता एवं व्यवहारता, द्रव्याभाव पूजा का अनुकरण, आदर, तद्गुणलब्धिभावना, राग-त्याग वृत्ति के वपन, शुभभाववृद्धिसे रण आदि लक्ष्यों के कारण महती उपयोगिता, क्षेत्रपाल शासन देवता आदि की पूजा की अनागमिकता एवं मिथ्यात्वता, जीव की साध्य-साधकता एवं व्यवहार तथा यथार्थ जीवता, व्यवहार और निश्चयनय की अपेक्षा जीव की उन्नीस प्रकार की विविधरूपता, हेतु-प्रकृति, अनुभाग एवं आश्रय की अपेक्षा, जाति एवं आचारगत शुभाशुभ कर्म की व्यवहारनयिक व्याख्या, मिथ्याबोधार्थ आगमज्ञान तथा बाह्य चारित्र की द्रव्यलिगिता एवं भावानुचारी फलप्रदत्ता, ज्ञान की परिणामन क्रियता, शुभोपयोग की पुण्यबंधकता एवं मोक्षमार्ग-अकारणता, द्रव्य-पर्यायोजय शुद्धता एवं अशुद्धता की अपेक्षा संसारी और मुक्त की परिभाषा, ज्ञान की ही मोक्षकारणता, ज्ञानाभाव के बदले विकारी ज्ञान की अज्ञानता, संन्यास और सल्लेखना की एकार्थकता, ज्ञानी की अबंधकता की रागाशिकता के आधार पर व्याख्या, संयम की पुण्यबंधकारणता, केवली की निर्मोहता का निर्दयता परिहरण, चित्तवृत्ति को स्थिर रखने की प्रक्रिया की पुरुषार्थता, हेय पर रागात्मकता का अभाव, रागादिभाबों में जीव की उपामान कारणता, द्रव्यकर्म की भावकर्म के प्रति उपादान कारणता, निमित्त और उपादान कारणों की बहिरंग एवं अंतरंग कारणता एवं योग्यता व्यवहार और निद्ययनय की पर एवं मूल सापेक्षता, उपयोगिता एवं स्वाश्रय पर्यायरूपहेयोपादेयरूप-सत्यासत्यरूपता जैसे अनेक विषयों पर अपने स्पष्ट विचार व्यक्त किये हैं। भाषात्मक विवेचन
पंडित जी ने कलशों के शास्त्रीय एवं सूक्ष्म सैद्धान्तिक मतों की प्रस्थापनाओं को सहज एवं बोधगम्य भाषा का वेश देकर जन-सामान्य को उपकृत किया है। उनकी भाषा में अनेक बुंदेलखंडी शब्द और मुहावरे पाये जाते हैं जिससे भाषा का माधुर्य भी ओजस्विता ले लेता है। स्थान-स्थान पर उन्होंने अनेक अलंकारों का उपयोग किया है और भाषा में चमत्कारिकता उत्पन्न की है। कुंदकुंद के जटिल आध्यात्मिक विषयों की प्रश्नोसरी में भाषा की सरलता जितनी महत्वपूर्ण है, उतना ही व्याख्या में लौकिक उदाहरणों का प्रयोग भी विषय वस्तु के अर्थावबोध के लिये महनीय है। पंडित जी ने लौकिक जीवन के दैनंदिनी उदाहरण देकर अर्थबोध को सुगम बनाया है। उन्होंने उदाहरणों में जल-दुग्ध, स्वर्ण-पत्थर, दूध-शक्कर, पनिहारिन, नृत्यांगना, लाल-श्वेत वस्त्र, धर्मशाला, सूर्यप्रकाश, घी का घड़ा, दर्पण में प्रतिबिंब, घर और पड़ोसी, गेहूँ का पौधा और गेहूँ, व्यवहार और परमार्थ, नशे में गुड़ और मिट्टी का भक्षण, दुकान और मुनीम, दुकानदार और ग्राहक, विषमारक औषधि, प्यासा और गंदला पानी, हल्दी और चूने के मिश्रण की रक्तवर्णता एवं उपयोगवृत्ति की अन्यक्त्ता पर अनुभूति के अनेक उदाहरण दिये हैं। कुछ महत्वपूर्ण चर्चाओं के निष्कर्ष
अमृत-कलश कुंदकुंद के मुख्यत: विश्वषोन्मुखी प्रतिपादन पर आधारित है लेकिन इसमें व्यावहारिक जीवन की चर्चाओं की उपेक्षा नहीं की गई है। यह स्पष्ट बताया गया है कि पुण्य-पाप, हेय-उपादेय, बंध-अबंध, शुभशुद्ध आदि की सूक्ष्म-चर्चाओं में हमारे सांसारिक जीवन की जो भी दयनीय स्थिति हो, पर उपादान योग्यता को प्रतिफलित करने में निमित्त व्यवहार की अनदेखी नहीं की जा सकती। वस्तुत: निमित्त और उपादान अथवा निश्चय व्यवहार की चर्चा वस्तु-ज्ञान की सूक्ष्मता एवं तीक्ष्णता की प्रतीक है, इनकी उपयोगिता के विलोपन की नहीं। अपने-अपने क्षेत्र में दोनों की सत्यता है, पर कुंदकुंद व्यवहार मार्ग को निश्वयमार्ग का माध्यम मानकर इसे कुछ उच्चतर या प्रमुख ध्येय मानते हैं। इस आधार पर ही पंडित जी ने प्रश्नोत्तरी में अनेक विषय पर आधुनिक दृष्टि से अपना मत प्रस्तुत किया है इनमें से कुछ निम्न हैं :
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