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दुर्मिल सवैया
तन मन वचन दोय दस टारत, स्वार्थ नहीं उर माय सती । अमल अक्रोध, अशुची सती मन लक्ष्य भेद अथाह बुद्धिमती ॥
रूप श्रद्धांजली देवें सती तुझ, स्वर्ग में पामजो खूब आराम ।
शिष्टाचार अनुपम मोहत आप जिनोत्तम सुरसती । 'रूप' कहै गुरु आज्ञा शिरोधर, गई देसा दोय स्वर्गगती ॥
धरती की गोद में कितने ही नाम
वार निहारत शील की सागर, तू रतनाकर जानि तमाम ।
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झट तन धार आजो मृत्यु लोक में, यम साधन करो जन काम ॥
कानकँवर चंपा सती दो हुई हिन्दवान में | शील संयम थंभा, देकर सती देखा दिया ॥
मानसून की तरह जन्म लेकर
आषाढ़ के बादलों की तरह छाते हैं कुछ नाम ऐसे होते हैं,
मौसम के बाद भी अंगुलियों पर गिने जाते हैं श्रमणी श्रेष्ठा
'रूप' कहे जिनधाम बसी सति, चुं पुकारत है जन आम ॥
मधुकर गुरु मुनीह, दुनियों में थोजो देवता । आज्ञाकार सुनीह, रूप कहै मरु राज में ॥
श्रद्धा के सुमन भेंट चढ़ाये
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पाली (मारवाड़)
प्रवर्तक श्री महेन्द्र मुनि 'कमल'
सरल हृदया
कानकुंवर जी के लिये कितना क्या कहूं
सद्गुणों की खान थी न केवल मरुधरा की
वे तो
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सम्पूर्ण जिनशासन की शान थी उनके जिह्वा और जीवन में
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