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________________ दुर्मिल सवैया तन मन वचन दोय दस टारत, स्वार्थ नहीं उर माय सती । अमल अक्रोध, अशुची सती मन लक्ष्य भेद अथाह बुद्धिमती ॥ रूप श्रद्धांजली देवें सती तुझ, स्वर्ग में पामजो खूब आराम । शिष्टाचार अनुपम मोहत आप जिनोत्तम सुरसती । 'रूप' कहै गुरु आज्ञा शिरोधर, गई देसा दोय स्वर्गगती ॥ धरती की गोद में कितने ही नाम वार निहारत शील की सागर, तू रतनाकर जानि तमाम । Jain Education International झट तन धार आजो मृत्यु लोक में, यम साधन करो जन काम ॥ कानकँवर चंपा सती दो हुई हिन्दवान में | शील संयम थंभा, देकर सती देखा दिया ॥ मानसून की तरह जन्म लेकर आषाढ़ के बादलों की तरह छाते हैं कुछ नाम ऐसे होते हैं, मौसम के बाद भी अंगुलियों पर गिने जाते हैं श्रमणी श्रेष्ठा 'रूप' कहे जिनधाम बसी सति, चुं पुकारत है जन आम ॥ मधुकर गुरु मुनीह, दुनियों में थोजो देवता । आज्ञाकार सुनीह, रूप कहै मरु राज में ॥ श्रद्धा के सुमन भेंट चढ़ाये (६८) • पाली (मारवाड़) प्रवर्तक श्री महेन्द्र मुनि 'कमल' सरल हृदया कानकुंवर जी के लिये कितना क्या कहूं सद्गुणों की खान थी न केवल मरुधरा की वे तो For Private & Personal Use Only सम्पूर्ण जिनशासन की शान थी उनके जिह्वा और जीवन में www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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