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________________ ही धर्म संस्कार जागृत हुए और पौष कृष्णा दशमी सं. २००५ के पावन दिवस में जैन भगवती-दीक्षा अंगीकार कर ली। आपकी गुरुवर्या संसार पक्ष की ही आपकी भुआजी अध्यात्मयोगिनी सरलमना विदुषी महासतीजी श्री कानकंवरजी थीं। साध्वी जीवन के प्रारम्भिक काल में ही आपने अपनी विचक्षण बुद्धि का परिचय दिया और जैन शास्त्रों व सूत्रों का पठन-अध्ययन कर लिया। आप संस्कृत के साथ-साथ अर्ममागघी (प्राकृत) हिन्दी आदि भाषाओं की भी विदुषी व ज्ञाता महासती थीं। आप का महान व्यक्तित्व चमकते चाँद के सदृश जब भी हृदय पटल पर उभर आता है तो अपनी एक अमिट छाप छोड़ जाता है -हृदय प्रदेश में उसका जगमग प्रकाश चमत्कृत हो जाता है। आप का जीवन परोपकार का प्याला था अमृत का कटोरा था। आपकी मृदु वाणी हर मानस का मन मोह लेती थी। जो भी आपके सम्पर्क में आया उसी का जीवन सौरभ मय बन गया। आपकी सदा यही भावना रहती थी कि जन जन के जीवन में शान्ति व सुख के सुन्दर फूल खिलें और सदा धर्म पथ पर अग्रसर होते रहें। गुलाब काटों के बीच खिलता है जब तक पौधे पर रहता है, अपनी सुवास से वायुमण्डल को सुवासित कर देता है और जब पौधे से विलग होकर बिछुड़ कर मिट्टी में मिल जाता है तो उस मिट्टी को भी सौरभ मय बना डालता है, उसी प्रकार महासतीजी ने अपने महाप्रयाण के पश्चात् भी अपनी महानता की महक वातावरण में बिखेर दी जिससे जन जन का जीवन सुखमय बन रहा है और बनता रहेगा। आपने सभी का जीवन ज्ञान-सलिल से पल्लवित व पुष्पित किया। पकी प्रवचन शैली माधर्य से परिपर्ण थी। भाषा सदा ही भावपर्ण व संयत रहती थी। ज्ञान-ध्यान, स्वाध्याय व सेवाभाव सदा स्मरण रहेगा आने वाली पीढ़ी को। आपकी आत्मा सदा -सर्वदा धर्म पुष्प बरसाती हुई मोक्ष पथ पर बढ़े यही हार्दिक कामना है। ऐसी महामहिम विदुषी महासती को शत-शत प्रणाम! एवं अनेकानेक भाव-भरी श्रद्धांजलि!! सागर सम गम्भीर • सुरेन्द्र एम. मेहता प्रमुख, श्री गुज. श्वे. स्था. जैन एसोसियेशन, मद्रास पू. शांत स्वभावी महासती श्री चम्पाकुंवरजी म.सा. की सेवा में कोटि कोटि वंदन। - ज्ञानी, ध्यानी, गुणी, जैन धर्म प्रभावक पू. अध्यात्मयोगिनी महासती श्री कानकुंवरजी म.सा. कः सशिष्या गणगंभीरा प.प. महासती श्री चम्पाकंवर जी म.सा. के महाप्रयाण से हमारे श्रीसंघ में और जैन समाज में दुःख की गहरी छाया छाई हुई है। . पू. महासती जी का जीवन साधनामय, आराधनामय, ज्ञानमय और प्रसन्न वदन था। उन्होने मृत्यु को महोत्सवरूप बनाया था। जैसे फूल खिलकर मुरझा जाता है और उसमें कोई विशेषता नहीं रहती है। पुष्प अपनी सौरभ से अपने परिवेश को सुरभित करता है, यही उसकी महत्ता है। सूर्य उदय होता हौ और संध्या को अस्त होता है, यह उसका दैनिक चक्र है, महत्व तो यह है कि वह जगत को प्रकाशित करता है। विश्व में जन्म लेकर मृत्यु की गोद में समा जाना कोई महत्व नहीं रखता। महत्व तो मानव जीवन को स्व-पर कल्याण में खपा देने पर है। जीवन की सुवास से जगत महक उठे, यह जीवन का महत्व है। (५२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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