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________________ शत्-शत् श्रद्धा सुमन • श्री मधुकर शिष्या झणकार चरणोपासिका साध्वी श्री चन्द्रप्रभा चन्द्रिका' आमेट (राज.) मनुष्य जीवन एक गहरे सागर की भाँति है। जिस प्रकार समुद्र में अनेक लहरें आकर मिलती है। उसी प्रकार मानव जीवन में भी मानव का अनेक व्यक्तियों से समागम होता है। कुछ व्यक्तियों के मिलन से जीवन में अपार प्रसन्नता होती है और कुछ व्यक्तियों का क्षणिक सामीप्य ही जीवन में संघर्ष क्लेश उत्पन्न कर देता है। ___ जब मनुष्य सच्चे सन्त या साधकों के पास जाता है तो संत अपने अनुपम ज्ञान रूपी सौन्दर्य से मनुष्य की क्षुधा या झोली को भर देते है। इसी श्रृंखला में महान विदुषी साध्वीरत्ना श्री चम्पाकंवरजी म.सा. का नाम आता है। जब मैं वैराग्य अवस्था में थी तब मुझे आपश्री के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ। महाराजश्री के मुख पर अनुपम तेज देदीप्यमान हो रहा था। आपकी सुन्दर मुखाकृति को देखकर कोई भी मानव प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता था। आपकी आवाज में विचक्षण जादू, शीतलता, स्वभाव में अपनापन कोमलता का सहज ही अलौकिक मिश्रण था। आपको देखकर ऐसा लगता था कि जिस प्रकार बालक स्वभाव से, कोमल, छल-कपट से दूर, मोह माया रहित होता है उसी प्रकार आप श्री भी क्रोध, मान, माया, राग, द्वेष से रहित थी। एक आदर्श श्रमणी के सभी सद्गुणों से आप सर्वथा सुअलंकृत हैं। ऐसा कहते हुए मैं किसी अतिशयोक्ति का आश्रय नहीं ले रही हूँ। आप परम शीतल, मृदुभाषी एवं वैदुष्य की अगाध अम्बोधि होते हुए भी मितभाषी थी। आपका मितभाषण श्रोताओं पर जादू सा प्रभाव छोड़ जाता था। व्यक्तिगत रूप से मैंने आपसे जो वात्सल्यता, आत्मीयता, अपनत्व प्राप्त किया है उसके वर्णन के लिए मेरे पास उचित शब्दों का नितान्त अभाव है। व्यक्तिगत रूप से मैंने आपसे जो वात्सल्य, आत्मीयता अपनत्व प्राप्त किया है उसके वर्णन के लिए मेरे पास उचित शब्दों कानितान्त अभाव है। केवल श्रद्धावनत् मस्तक होकर आपके सम्बन्ध में अपनी तुच्छ बुद्धिनुसार जो कुछ शब्द कुसुम प्रस्तुत किए है वे मात्र सूर्य के आगे लघु दीपक की द्युति के समान है। मैं उन्हे शत्-शत् श्रद्धा सुमन अर्पित करती हूँ। तुच्छ लेखनी मेरी है, सद्गुणों के आप भंडार। मेरी भावना वंदन के हित रहती है सदैव तैयार॥ शांति दया अनुकम्पा सागर। हृदय आपका परम उदार। महासती श्री चम्पाकुंवरजी शत्-शत् वंदन करे स्वीकार॥ (३१) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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