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________________ जन्म और मृत्यु तो जीव का धर्म है। कोई भी प्राणी क्यों न हो, जन्मता और मरना स्वीकार करना उसकी अपनी विवशता है। इसमें चिंतन धारा अथवा धार्मिकता का प्रकार बाधक नहीं बन सकता। जब तक कर्म बंध बना रहेगा तब तर पुनर्जन्म का क्रम भी चलता रहेगा। यह किसी धर्म विशेष को स्वीकार करने से बदलने वाला नहीं है। आत्मा और कर्मों का अटूट संबंध है जिसे जैन धर्म में एक क्षेत्रावगाह संबंध कहा जाता है । संयोग तो अस्थायी होता है। आत्मा के साथ कर्म संयोग भी अस्थायी है। इसका विघटन भी संभव है। कर्मों के संबंध के विघटन का उपाय जैन धर्म में तप बताया गया है। तप का प्रारंभ भीतर से होता है। बाह्य तपों को जैन शास्त्रों में महत्व नहीं दिया गया। आंतरिक तप की वृद्धि के लिये जो बाह्य तप अनिवार्य हैं, वे स्वतः ही हो जाते हैं। तपों का जो अंतिम भेद ध्यान है वहीं कर्म नाश का कारण है। यह ध्यान उन्हीं से प्राप्त होता है जिनका आत्मोपयोग शुद्ध है। शुद्धोपयोग ही मुक्ति की साक्षात् कारण है अथवा मुक्ति का स्वरूप है। आत्मा की पाप और पुण्य रूप प्रवृत्तियाँ उसे संसार की ओर खींचती हैं। जब इन प्रवृत्तियों से वह उदासीन हो जाता है तब नये कर्मों का आना रुक जाता है। इसे जैन मत में संवर कहा जाता है। संवर हो जाने पर जो पूर्व संचित कर्म हैं, वे अपना रस देकर आत्मा से अलग हो जाते है और नये कर्म आते नहीं, तब आत्मा की मुक्ति हो जाती है। कर्मों के विनाश का अर्थ है - सतो नात्यन्त संक्षयः । (आप्त परीक्षा) नैवासतो जन्म सतो न नाशो दीपस्तमः पुद्गलभावतोऽस्ति । (स्वम्भू स्तोत्र ) तप निर्जरा द्वारा जीव अनावृत्त होकर परमशुद्ध एवं निर्मल हो जाता है। वह अपने प्राकृत गुणों में दीप्तिमान हो जाता है। निरंतर आराधना तथा तल्लीनता द्वारा वह परमात्मपद को प्राप्त कर मोक्ष के चरम बिंदु पर स्थिर हो जाता है। मोक्ष हो जाने पर आत्मा को पुनर्जन्म अथवा जन्मांतरण नहीं व्यापता । Jain Education International **** * '२४६) * For Private & Personal Use Only साहित्य संस्थान राजस्थान विद्यापीठ उदयपुर www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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