SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 558
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अर्थात् जो आठ प्रकार के कर्मों को तपाता है, उन्हें क्षीण करता है - उसे तप कहते है। उमास्वाति ने कहा है। इच्छा निरोधस्तपः इच्छाओं पर नियंत्रण करना तप है। इस प्रकार तप की निरुक्तियों एवं परिभाषाओं के परिशीलन से ज्ञात होता है कि 'तप' वह साधना है जिसके द्वारा मनुष्य इंद्रिय तथा मन को नियंत्रित करके, विषयों की तरफ से पराङ्मुख करके, अंतर्मुखी बना देता है जिससे आत्म दर्शन सुलभ हो जाता है। तप का महत्व ... श्रमण संस्कृति तप प्रधान संस्कृति है। श्रमणशब्द की व्युत्पत्ति भी तप परक है-। श्राम्यति तपसा खिद्यति इति कृत्वा श्रमणों वाच्यः। अर्थात् जो श्रम करता है। तपस्या करता है वही 'श्रमण' कहलाता है। उत्तराध्ययन में तप के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है । तवो जोई जीवो जोइठाणं, जोगा सुया सरीरं करिसंग। कम्मेहा संयमजोग संती होगं हुषामि इसिण पसत्थं॥ अर्थात् तप ज्योति है, अग्नि है। जीव ज्योति स्थानिक है। मन, वचन, काया के योग-सुवा-आहुति देने की कड़छी है, शरीर कारीषांग = अग्निप्रज्वलित करने का साधन है, कर्म जलाये जाने वाला ईधन है, संयम योग शक्ति पाठ है। मैं इस प्रकार का यज्ञ करता हूँ, जिसे ऋषियों ने श्रेष्ठ बताया है। आचारा ङ्ग में तप को कर्ममूल शोधक बताते हुए कहा गया है। जहू खलु मइलं वत्थं सुज्झए उदगाइएहि दव्वेहि। एवं भावुवहाणेणं सुज्झए कम्मट्टविहं॥ जिस प्रकार जल आदि शोधक द्रव्यों से मलिन वस्त्र भी शुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार आध्यात्मिक तप साधना द्वारा आत्मा ज्ञानावरणादि अष्टविध कर्म मल से मुक्त हो जाता है। तप का वर्गीकरण ४. सूत्रकृतांग १/१६ कीलीका आचार्य शीलांक (२३५) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy