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दिशा-दृष्टि से दूर पड़ा हुआ व्यक्ति “जीवो जीवस्य भोजनम्" मानकर स्वयं की रक्षा के लिए दूसरे का अमानुषित वध और शोषण करता है, प्रशंसा सम्मान, पूजा, जन्म-मरण मोचन तथा दुःख प्रतिकार करने के लिए वह अज्ञानतापूर्वक शस्त्र उठाता है और सबसे पहले पृथ्वी और पेड़ पौधों पर प्रहार करता है जो मूक हैं, प्रत्यक्षतः कुछ कर नहीं सकते । परन्तु ये मात्र मूल हैं इसलिए चेतनाशून्य है और निरर्थक हैं यह सोचना वस्तुतः हमारी मृत्यु का कारण बन सकता है जिसे महावीर ने कहा - "एस खलुमोहे, एस खलुमारे, एस खलुणरए ।” यह मोह हमारी प्रमाद अवस्था का प्रतीक है। इसी से हम पृथ्वीकायिक आदि जीवों की हिंसा करते हैं। इन स्थावर जीवों में भी प्राणों का स्पन्दन है, उनकी चेतना सतत मूर्छित और बाहर से लुप्त भले ही लग रही हो पर उन्हें हमारे अच्छे-बुरे भावों का ज्ञान हो जाता है, और शस्त्रच्छेदन होने पर कष्टानुभूति भी होती है। भगवती सूत्र ( १९.३५ ) में तो यह कहा कि पृथ्वीकायिक जीव आक्रांत होने पर वृद्ध पुरुष से कहीं अधिक अनिष्टतर वेदना का अनुभव करता है। इतिहास यह बताता है कि पृथ्वी के गर्भ में करोड़ों साल पहले जीवों का रूप छिपा रहता है जो फासिल्स (जीवाश्म) के रूप में हमें प्राप्त हो सकता है, पृथ्वी के निरर्थक खोदने से उसको टूटने की संभावना हो सकती है और साथ ही पृथ्वी के भीतर रहने वाले जीवों के वध की भी जिम्मेदारी हमारे सिर पर आ जाती है।
इसी तरह जलकायिक जीव होते हैं जिनकी हिंसा न करने के लिए हमें सावधान किया गया है। क्षेत्रीय निमित्त से जल में कीड़े उत्पन्न होने को तो सभी ने स्वीकार किया है पर जल के रूप में उत्पन्न होने वाले जीवों की स्वीकृति महावीर के दर्शन में ही दिखाई देती है इसलिए वहाँ उत्सेचन (कुए से जल निकालना), गालन (जल छानना), धावन (जल से उपकरण आदि धोना) जैसी क्रियाओं को जलकाय के शस्त्र के रूप में निर्देष्ट किया है। ऐसी हिंसा व्यक्ति के अहित लिए होती है, अबोधि के लिए होती है। (तंसे अहियाए, तं से अबोहीए) । इसीलिए जैनधर्म में जल गालन और प्रासुक जल सेवन को बहुत महत्व दिया गया है। साथ ही यह भी निर्देश है कि जो पानी जहाँ से ले आयें, उसकी बिलछावनी धीरे से उसी में छोड़नी चाहिए ताकि उसके जीव न मर सकें । “पानी पीजे छानकर गुरु कीजे जान के” कहावत स्वच्छ पानी के उपयोग का आग्रह करती है। दूषित पानी निश्चित ही हमारे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। पीलिया और पोलियो जैसे वायरस रोग, दस्त, हैजा, टायफाइड जैसे चैक्टीरिया रोग और सूक्ष्म जीवों व कृमियों से उत्पन्न होने वाले रोग दूषित प्रदूषित जल के उपयोग से ही होते हैं। एक बूँद पानी में हजारों जीव रहते हैं यह भी एक वैज्ञानिक तथ्य है इसलिए व्यर्थ पानी बहाना भी अनर्थ दंड में गिना जाता है। आज के प्रदूषित पर्यावरण में नदियों और समुद्रों का जल भी उपयोगिता की दृष्टि से प्रश्न चिह्न खड़ा कर देता है । खाड़ी युद्ध के संदर्भ में समुद्र में गिराये हुए तेल से समुद्री जीवों का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है और उसमें रहने वाले खाद्य शैवाल (काई) लवण आदि उपयोगी पदार्थ दूषित हो रहे हैं। अनेक जल संयंत्रों के खराब होने की भी आशंका हो गयी है।
अग्नि में भी जीव होते हैं जिन्हें हम मिट्टी जल आदि डालकर प्रमाद वश नष्ट कर डालते हैं। वायुकायिक जीव भी इसी तरह हम से सुरक्षा की आशा करते हैं। आज का वायु प्रदूषण हमें उस ओर अप्रमत्त और अहिंसक रहने का संकेत करता है ।
आचारांग, १.२५
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