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________________ जब मैं मरण-मुक्त हूँ तो डरुं किससे, जबकि रोग मेरे पास आ ही नहीं सकते, तो पीड़ा कैसी? ' न मैं बच्चा हूँ, न युवा हूँ, न वृद्ध हूँ यह सब तो पुद्गल क्रीड़ा है, होती रहे यह क्रीड़ा मेरा इस क्रीड़ा से क्या प्रयोजन है। से सुंमच में अज्झत्मयं च मे, बंधप्पमुक्खो अज्जत्थेव। -आचारांग ५/५२ मैने सुना है और अनुभव किया है कि मैं आत्मा हूँ, बन्धनों से मुक्त हूँ। कितने उल्लास मय होते होंगे इस अनुभूति के क्षण। यह आनन्दोत्सव के क्षण, सदाभावी बन जाय, इसी का प्रयास है वह समस्त सांस्कृतिक साहित्य जो मोक्षनीति का अनुगामी है। नीति-शास्त्र की सीमाएं लोक तक ही सीमित हैं, परन्तु जैनागमों की नीति लोक-परिचायिका तो है ही, साथ ही उस ओर भी ले जाने वाली है, जहाँ मोक्ष है, जहाँ नीति का अवसान है, जो जीवन-यात्रा का अन्तिम लक्ष्य है। ऊपर हमने चतुर्वर्ग रूप जैनत्व-मण्डित नीति-शास्त्र का विहंगावलोकन किया है। इसके आधार पर हम कह सकते हैं कि जैन-साहित्य एकांगी साहित्य नहीं, उसमें जीवन के सर्वेक्षण द्वारा प्राप्त निष्कर्ष है, उसमें जीवन के हर पहलू को परख कर उपस्थित किया गया है, उसमें लोक की वास्तविकता के ऐसे बहुरंगी चित्र उपस्थित किये गये हैं, जिनसे मनुष्य लोक की दुःखमयता से परिचित होकर उधर बढ़ सके जिधर आनन्द का अनन्त सिन्धु लहरा रहा है। ॐ828688880868800388 आधुनिक सम्यता का सबसे बड़ा अभिशाप यह है कि मानव अन्यत्यवाद की लहरों में बह गया हैं। अपने आपको मूएका बाहरों जगत में सुख तथा शांति प्राप्त करने का प्रयत्न करता हैं। परिणाम यह होता है कि न तो वह अपने आपकों पा सकता हैं और न जगत को ही पाता है। उसे कहीं भी शांति नसीब नहीं होता। आध्यात्मिक साधना के बिना व्यक्ति न तो परलोक सुधार पाता है और न इस लोक में सी तृष्णा के कारण संतुष्टि प्राप्त कर सकता हैं। • युवाचार्य श्री मधुकर मुनि (१९६) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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