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________________ अगर सारे संसार पर तुम्हारा अधिकार हो जाय, दुनिया का सारा धन तुम्हें ही मिल जाय, तब भी तुम्हें वह अपर्याप्त ही प्रतीत होगा, वह धन अन्त समय में तुम्हारी रक्षा भी नहीं कर सकता है। जा बिहवो ता पुरिसस्स होइ, आणापड़िच्छओ लोओ। गलिओदयं धणं विज्जुलावि दूरं परिच्चयइ ॥ - प्रा. सू.स. जब तक मनुष्य के पास वैभव है तब तक ही लोग उसकी आज्ञा का पालन करते हैं, पानी समाप्त होने पर तो बिजली भी बादल का परित्याग कर देती है। थोवं लद्धुं न खिसए । - दशवै २/२९ थोड़ा प्राप्त होने पर भी मनुष्य को झुंझलाना नहीं चाहिये । खेतं वत्युं हिरण्णं च, पुत्तदारं च बंधवा । चइत्ताणं इमं देहं, गतव्वमवस्स में॥ - उत्तरा १९/१७ खेत, वस्तुएं, सोना, पुत्र, पत्नी, बन्धु, बान्धव और इस देह को भी त्याग कर हमें यहाँ से अवश्य ही जाना पड़ेगा । उपर्युक्त अर्थ - नीति सम्बन्धी वाक्यों से ज्ञात होता है कि अपरिग्रह - प्रधान, जैन संस्कृति ने अर्थ नीति के गाल पहलू को नहीं, उसके त्याग-पक्ष को विशेष महत्व दिया है। उसका लक्ष्य वाक्य यही रहा है - अर्थानामर्जने दुःखं, अर्जितानाञ्च रक्षणे । आये दुःखं व्यये दुःखं, धिगर्थान् कष्ट संक्षयान् ॥ धन को एकत्रित करते समय दुःख उठाने पड़ते हैं, उसकी रक्षा के लिये भी दुःखों का ही सामना करना पड़ता है, अतः धन के आगमन में कष्ट है, उसके व्यय में कष्ट है, इस प्रकार सभी प्रकार से कष्ट दायक धन को धिक्कार है। कामनीति - ब्रह्मचर्य की सुदृढ़ आधार शिला पर अवस्थित जैन संस्कृति के पावन प्रासाद में हम काम के उसी रूप में दर्शन करते हैं, जिस रूप में उसका विचरण वहाँ निषिद्ध किया जा रहा है, कहीं-कहीं उसे धक्का देकर बाहर निकाला जा रहा है, अथवा उसे वहां निकलने का आदेश पत्र दिया जा रहा है। जैन संस्कृति के पावन प्रासाद द्वार पर ही यह 'मोटो' देखने को मिलता है कि 'न विषय भोगो भाग्यं, विषयेषु वैराग्यम्' विषय वासनाओं की प्राप्ति भाग्योदय का चिह्न नहीं, भाग्योदय का विलक्षण लक्षण विषयों से विरक्ति है। वासना - लिप्त धर्म को यहाँ विनाशकारी बतलाते हुए अनाथी मुनि कहते हैं - विसं तु पीयं जह कालकूडं, हणाइ सत्थं जह कुग्गहीयं । एसो विधम्मों विसओववन्नो, हणाइ वेयालइ वाविवन्नो ॥ - उत्तरा २०/४० पिया हुआ जहर, उलटा पकड़ा हुआ शस्त्र और अच्छी प्रकार से बश में न किया हुआ बेताल (पिशाच) जैसे मनुष्य को नष्ट कर देते हैं, वैसे ही वासनायुक्त धर्माचरण आराधक का विनाश कर देता है । Jain Education International (९९१) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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