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________________ समन्वय का मार्ग स्याद्वाद • भारतीय दर्शन की सुदूरगामी परम्परा है। ऋषि महर्षि योगी-महात्माओं संतों, विचारकों, दार्शनिकों एवं चिन्तनशील मनीषियों ने अध्यात्म- जगत् में कुछ न कुछ विचार, मत या वाद तर्क अवश्य प्रदान किए। उनके फलस्वरूप चिन्तन के क्षेत्र में नए-नए विचार आए। नए-नए चिन्तन उभरे तथा नई-नई विचार धाराओं को अंकुरित, पल्लवित, पुष्पित एवं फलित होने में विशेष बल मिला। अध्यात्मवादी और भौतिकवादी विचारों को पनपने में भी सहयोग मिला। Jain Education International डॉ. उदयचंद्र जैन भारतीय चिन्तन की विचारधारा आत्म-तत्व को बल देने लगी, क्योंकि प्रत्येक दार्शनिक आत्मा को सर्वोपरि मानकर आत्मा, बंधन, मुक्ति, जीव एवं जगत् तथा ईश्वर को अपने चिन्तन का विषय बनाने लगा। भारत की प्राचीन दार्शनिक परम्परा में जैन दर्शन भी आत्मवादी दृष्टि पर आधारित समन्वय के गीत गाने लगा, विश्व शान्ति की परिकल्पना की गई। इस विचार धारा को ज्ञान-विज्ञान की तराजू पर तोला जाने लगा। जैनदर्शन की विचारधारा अर्हत्-मत के रूप में विख्यात हुई । ऋषभ से महावीर पर्यन्त जो कुछ भी चिन्तन प्रस्तुत किया गया, वह सब एक पक्ष पर आधारित न होकर समन्वय के मूल सिद्धान्त को लेकर अपने चिन्तन को प्रस्तुत करने लगा। तीर्थंकरों एवं गणधरों के बाद जो कुछ भी कहा गया वह सब एक पक्ष की मुख्यता और दूसरे पक्ष की गौणता को सदैव स्थापित करता रहा । सामान्य और विशेष की दृष्टि नय पर केन्द्रित हो गई। जो भी वस्तु तत्व की सिद्धि है वह एक पक्ष सत् या असत् पर ही टिकी नहीं रह गई, अपितु जिस समय सत् रूप में वस्तु का विवेचन किया गया, उस समय सत् की प्रधान है, असत् का अभाव नहीं, अपितु असत् का सद्भाव होते हुए भी उसकी उपस्थिति गौण रूप अवश्य बनी रहती है, जिस समय कलम कहा जाता है, उस समय कलम की प्रमुखता, पुस्तक आदि की गौणता बनी रहती है, एक का कथन करने पर दूसरे की सर्वथा अभाव नहीं हो जाता है। यदि एक विश्वशान्ति या अस्त्र-शस्त्र का निषेध करना है उस समय अन्य वस्तु का निषेध नहीं हो जाता है। सत् द्रव्य है, जो परिवर्तनशील है किंतु उसका सर्वथा विनाश नहीं हो जाता है। अपितु वह सत् रूप वस्तु जिस समय जिस रूप में परिवर्तन को प्राप्त होती है, उस समय वह वस्तु उस रूप को प्राप्त होती है, कोई भी वस्तु अपने अस्तित्व को छोड़कर अन्य पदार्थ रूप नहीं हो जाती है, यदि पदार्थ जड़ है तो वह चेतन भी नहीं हो जाएगा, यदि चेतन है तो वह जड़ नहीं हो सकता है। जड़ और चेतन पदार्थ तो हैं पर वे अलग-अलग अपने गुणों पर टिके हुए हैं। प्रत्येक पदार्थ का अपना स्वरूप है। गीता की भी यही दृष्टि है - “नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः । अर्थात् असत् की उत्पत्ति नहीं होती और सत् का सर्वथा नाश नहीं होता है। (१८४) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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