________________
'आचारांग' और कबीर - दर्शन
'आचारांग' जैनागम का प्रसिद्ध ग्रन्थ है जिसमें आचार के ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य (ब्रह्मचर्य ) का विशद निरूपण किया गया है। आचार दर्शन का मूलाधार समता है यानी सभी प्राणियों से एकात्मानुभव करना । सुख-दुःख, जीवन-मरण, मान अपमान में समत्व का अनुभव करना । कबीर निर्गुण भक्तिशाखा के ज्ञानमार्गी कवियों में सिरमौर हैं। उनके काव्य का पर्यवेक्षण करने पर विदित होता है कि उन्होंने आचार पर, जीवन व्यवहार पर अधिक बल दिया है। उनके दार्शनिक सिद्धांतों को जब देखते हैं तो उनमें और आचारंग-प्रतिपादित सिद्धान्तों तथा जीवन मूल्यों में अत्यधिक साम्य परिलक्षित होता है।
कबीर के दार्शनिक आध्यात्मिक विचारों को तीन भागों में विभाजित कर सकते हैं.
१. परमतत्व
२. जीवतत्व
३. मायातत्व
परमतत्व के विषय में कबीर का दृष्टिकोण निराकार तथा साकार से परे है, वह न द्वैत और न अद्वैत, वह न निर्गुण है न सगुण । ब्रह्म का स्वरूप अनिर्वचनीय है। रहस्यवादी शैली में कबीर का अनिर्वचनीय ब्रह्म सबके लिए बोधगम्य नहीं, वह अगम है जीव उसी परमतत्व का अंश है, अतः अजर-अमर है। लेकिन परमात्मा या परमतत्व की स्थिति को 'आचारांग के अनुसार अभिव्यंजित किया है। 'आचारांग' में परमात्मा का अभिनिरूपण अग्रांकित है -
१. सव्वे सरा यिट्टंति (१२३)
सब स्वर लौट आते हैं - परमात्मा शब्द के द्वारा प्रतिपाद्य नहीं है ।
वहाँ कोई तर्क नहीं है वह तर्क गम्य नहीं है।
वह मति द्वारा ग्राह्म नहीं है।
२. तक्का जत्थ णं विज्जइ (१२४)
Jain Education International
·
३. मई तत्थ ण गाहिया (१२५)
वह अकेला, शरीर रहित और ज्ञाता है ।
४. ओए अप्पतिद्वाणस्स खेयण्णे (१२६)
डॉ. निजामउद्दीन
For Private & Personal Use Only
५. सेण दीहे, ण हस्से, ण वट्टे, ण तंसे, ण चउरंसे, ण परिमंडले ।
(१७६)
www.jainelibrary.org