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जैन ग्रंथों में ज्यामितीय विवेचन का बाहुल्य है तथा क्षेत्रमिति विषयक सामग्री विपुल परिमाण में उपलब्ध है। सूर्य-प्रज्ञप्ति में विभिन्न ज्यामितीय आकृतियों की चर्चा है। भगवती सूत्र एवं अनुयोगद्वार सूत्र में ठोस आकृति धनत्रयस्, धनचतुरस्र, धनायत, धन वर्ग एवं धन परिमंडल, आयत, गोल, वेलन, सम्बन्धी सूत्रों का प्रयोग मिलता है।" उमास्वामी (१५० ई.पू.) की रचना तत्वार्थाधिगमसूत्र भाष्य में अनेक मापिकी सूत्र विद्यामान हैं जिन्हें निम्न रूप में लिखा जा सकता है। १६ :- यदि किसी वृत्त की परिधि के लिए p, जीवा = c, वृत्तखंड के चाप की लम्बाई = s, वृत्तखंड की ऊँचाई =H, वृत्त की त्रिज्या =R, व्यास =D, क्षेत्रफ७ =A व्यक्त किया जाय तो P = १०D; A =1 PD, C = ४H (D-H)H=1 (D/D--c'), S= 6h-c2 और D= {h2 +2 In तिलोयण्णती में कुछ प्रमुख प्रयुक्त सूत्र निम्नलिखित हैं १६ :- (१) लम्बवृत्तीय बेलन का आयतन 10r h; (२) लम्ब प्रिज्म के छिन्नक का
आयतन = आधार का क्षेत्रफल x प्रिज्य की लम्बाई, (३) वृत्त की परिधि Dx 10 (४) वृत्त के चतुर्थांश की जीवा का वर्ग =२R', (५) वृत्त की जीवा =ADP- Pc (६) वृत्तखंड का चाप = 5 =/26(dth)-12 (७) = H =PT2ी वृत्तखंड की ऊँचाई वृत्तखंड का क्षेत्रफल = A-HD V10 त्रिलोकसार में भी ऐसे अनेक सूत्र उपलब्ध हैं।18 इन सूत्रों में से प्रायः सभी का व्यवहार अभी भी किया जाता है।
वृत्त की परिधि एवं उसके व्यास के अनुपात अर्थात् के मान की विवेचना अति प्राचीन काल से ही जैन आगम ग्रंथों में की जाती रही है। जैन परम्परानुसार इसका स्थूल मान ३ तथा सूक्ष्म मान V१० स्वीकत किया गया है। सर्य प्रज्ञप्ति में इन दोनों मानों की चर्चा है १२। भगवती सत्र अनप
सूत्र, तत्वार्थाधिगम सूत्र भाग्य, तिलोयपण्णती, त्रिलोकसार आदि जैन ग्रंथों में भी ये मान उपलब्ध है। धवला में तो का मान ३५५/११३ दिया गाय है जो आधुनिक मान से बहुत ही निकट है। इसे चीनी मान कहा जाता है, पर ऐसा अनुमान है कि चीन में प्रयोग होने से पूर्व ही जैनाचार्यों ने इसका उपयोग किया है।
वर्तमान समय में प्रायिकता की खोज का श्रेय गेलिलियो, फरमेट, पास्कल, बरनौली आदि पाश्चात्य गणितज्ञों को दिया जाता है, पर प्रायिकता के सिद्धान्तों की नींव गुणात्मक रूप से आचार्य कुन्दकुन्द (५२ ई.पू. से ४४ ई. तक) एवं समन्तभद्र (२री शताब्दी) ने रख दी थी। स्याद्वाद के सप्तभंगों में सन्निहित इस सिद्धान्त का प्रयोग भी पाया जाता है। ° इस दिशा में अन्य अनेक मौलिकताएँ एवं विशिष्टताएँ जैन ग्रंथों में युग-युग से पल्लवित होती रही है।
भारतीय गणित के इतिहास में जिन दो जैन गणितज्ञों का महत्त्वपूर्ण स्थान है वे हैं श्री धराचार्य (८वीं शताब्दी) तथा महावीराचार्य (८५० ई.)। श्रीघराचार्य ने गणित सम्बन्धी स्वतंत्र ग्रंथों पाटीगणित एवं त्रिंशतिका की रचना कर एक परम्परा स्थापित की। इन ग्रंथों में गणित के विभिन्न विषयों की अत्याधनिक विधि का विवेचन किया गया है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि द्विघातीय समीकरण के हल करने की ऐसी वैज्ञानिक विधि की उन्होंने कल्पना की जो अभी भी उसी रूप में प्रयोग की जाती है। भास्कराचार्य
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