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(१०) स्वाध्याय सत्संग का अलम्बन रखें - ज्ञानियों ने संसार को विषवृक्ष कहते हुए उसके दो अमृत फल बताए हैं। वे हैं स्वाध्याय और सत्संग। इस विषम काल में समता साधकों के लिए ये दो बड़े आलम्बन है। जो स्वाध्याय और सत्संग में मन को रमा देता है, उसे फिर ममता अपने मोह जाल में नहीं बांध पाती है। कारण उसे अंतर में रहे परमात्मा का साक्षात्कार हो जाता है फिर उसे संसार के सभी नजारे फीके लगने लगते हैं। कविवर रहीम खान ने इसी संबंध में कहा है -
"प्रीतम छवि नैना बसी, पर छबि कहा सुहाय।
रहिमन भरी सराय लखि पथिक आप फिर जाय॥" (११) चार उत्तम भावनाओं की पालना - समभाव में अवस्थित रहने हेतु निम्र चार भावनाओं की पालना बहुत उपयोगी है। ये उत्तम भावनाएं इस प्रकार हैं।
__ “सत्वेषु मैत्री, गुणीषुप्रमोदं, क्विष्टेषु जीवेषुकृपा परत्वम्।
माध्यस्थ भावों विपरीत वृत्तौ, सदा ममात्मा विद्धातु दैवः॥ ११ संसार के समस्त जीवों के प्रति सब सुखी हो, मबका कल्याण हो और दुःख की मूल ऐसी पाप वृत्ति को छोड़ें ऐसी हित भावना रखना प्रथम् मैत्री भावना है। जो अपने से अधिक गुणी हैं, उनका यथोचित सत्कार सम्मान करना, उनके दर्शन पाकर जैसे सूर्यमुखी कलल सूर्य देख खिल उठता है, वैसे प्रमोदित हो जाना दूसरी प्रमोद भावना है। जो दुःखी और पीड़ित हैं, वे सुखी और स्वस्थ होवें व उनके प्रति सहानुभूति रखना, तीसरी करूणा भावना है। जो दुर्जन हैं, अपात्र हैं, ऐसे जीवों के प्रति भी अवैर विरोध, तटस्थ वृत्ति रखना चौथी माध्यम भावना है। ये चार उत्तम भावनाएँ अनंत सुख का खजाना है। किन्तु महान आश्चर्य है, कि हम इनसे न जुड़कर अनंत दुःख का खजाना, क्रोध, मान, माया, लाभ से जुड़े हुए हैं। तत्त्ववेत्ता श्रीमद् राजचंद्रजी ने इस संदर्भ में जो कहा है वह बडा मननीय है -
“अनंत सुख नाम दुःख, त्यां रही न मित्रता। अनंत दुःख नाम सुख, प्रेम त्यां विचित्रता॥
उघाड़ न्याय नेत्र ने निहाल रे निहाल तु।
निवृत्ति शीघ्र मेव धारी, ते प्रवृत्ति बाल तू॥" आगमकार भी कहते हैं -'खल मेलू सोमवा, बहुकाल दुसवा' २० जो विजय कायिक सुख देकर बहुत काल दुखदे वो छोड़ने योग्य है।
(१२) समता का अनंत स्रोत उत्तम क्षमा धारण करें - कटु वचन व मरणांतिक कष्ट देने पर भी अनिष्ट कर्ता को मात्र निमित्त मानकर उस पर तनिक क्रोध या द्वेष भी न आवे, यह उत्तम क्षमा है। यह जीवन में कैसे आवे, इस हेतु यहाँ तीन आदर्श उदाहरण प्रस्तुत है -
१९.. कर्तव्य कौमुदी पृ. २ श्लोक ३५-५५ तथा तत्त्वार्थ सूत्र ७/६ २०. दशवै सूत्र।
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