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________________ अनुसार हमारी भाषा हल्की या दूसरों को अखरने की भी न होना मधुर एवं संयत हो। जैन धर्म गुण पूजक है, व्यक्ति पूजक नहीं। अतएव व्यक्ति पूजक होकर परस्पर कटुता न लावें । विभिन्न परम्परा वालों को भी परस्पर मिलने पर समुचित आदर दिया जावे। यदि लम्बी मुहपत्ति वालों के धर्म स्थान में चौड़ी मुहपत्ति वाले आते या बिना मुहपत्ती बाधने वाले आते हैं तो उनकी उपेक्षा न की जावे । म. महावीर के सब अनुयायी होकर यदि एक साथ एक स्थान पर प्रेम से बैठ भी न सके तो यह कैसी समता होगी ? इतिहास साक्षी है कि म. पारस नाथ व म. महावीर की आचार परम्परा में भेद होते हुए भी दोनों के ही साधक जब भी मिलते तो एक दूसरे के साथ योग्य बहुमान देते व प्रेमपूर्वक आदर सत्कार करते थे। समता दर्शन का साधक कभी अपने उपास्य के प्रति भी कदाग्रही नहीं होता। उसका किसी के प्रति कोई पक्षपात नहीं होता है। वह जानता है कि पक्षपात से रागद्वेष बढ़ता है, और रागद्वेष 'रागोय दोसो वियकम्म बीय' १६ के अनुसार कार्य बंध के बीज हैं। जो वीतराग हो गये वह चाहे महावीर हो या ब्रह्मा, विष्णु या अन्य कोई, वे सब उसके उपास्य देव हैं। उसकी मान्यता होती है। (६) विवेक जाग्रत रखें अंधकार नहीं आता है जहाँ सूर्य का प्रकाश न हो। विषमता रूपी अंधकार जीवन में न आवे इस हेतु सदैव विवेक रूपी सूर्य को लुप्त न होने दें। विवेक के आलोक में स्वयं से स्वयं की पहिचान करें, जिससे भेद ज्ञान प्राप्त सके। भदे ज्ञान प्राप्त होने पर ही सच्ची समता की अनुभूति होती है । उस अनुभूति का रस कैसा अनुपम और विलक्षण होता है, उसका एक नमूना तत्वज्ञ पं. बनारसी दास जी के शब्दों में प्रस्तुत है - "भव बीजांकुर जनना रागा द्या, क्षय मुपा गता यस्य । १७ " ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरौ, जिनो वा नमस्तस्मैः॥' भेद विज्ञान जो समता योग की जननी है कितना महान है जिसे पाकर जीव जिनेश्वर का लघुनंदन हो जाता है। १६. १७. 'भेद विज्ञान जग्यो जिनके घट, चित्त भयो जिम शीतल चन्दन। केलि करे शिव मार्ग में, जग मांहि जिनेश्वर के लघुनन्दन ॥ सत्य स्वाभाव सदा जिनका, प्रगट्यो अवधात मिथ्यात्व निकंदन। शांत दशा जिनकी पहिचान, करे जोरि बनारसी वंदन ॥" जाग्रत विवेकवान दूसरे गिरते हुओं को भी बचा लेता है। एक बार एक सेठ को मरणांतिक भयंकर वेदना हुई। चिकित्सकों ने आश्चर्य किया कि २२० डिगरी ज्वर होते हुए भी सेठ जिंदा कैसे है ? तभी एक महात्मा को सेठ को मंगलिक देने को जिससे शान्ति मिले, बुलाया गया। महात्मा ज्ञानी थे। उन्होंने ताड़ लिया कि सेठ की धन में मूर्च्छा होने से, उसके प्राण धन में अटक रहे हैं। महात्मा ने सेठ को मंगालिक सुना कर एक सुई दी, और कहा “आप इसे सम्हालकर रखे। परलोक जावें तो साथ लेते जावें । मैं परलोक में आऊंगा तब आप से ले लूंगा।" सेठ ने विचार कर कहा “महात्मन मेरा शरीर ही Jain Education International उत्तरा ३२/७ आचार्य हरिभद्र सूरिकृत (१३८) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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