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________________ वस्तुतः संसार में समता से बढ़कर अन्य कुछ नहीं है। समता योग साधना के व्यवहारिक उपाय - हम कथनी तो करे, पर तदनुकूल करणी न हो, ज्ञान तो हो, पर आचरण न हो, तो ऐसी कथनी और ज्ञान का क्या महत्व होगा? हम विद्वान होकर समता योग का तलस्पर्शी विवेचन तो करे, परंतु हमारे जीवन में समता न आवे तो वह विद्वता क्या हमारे लिए भारवाही गर्दभ के भार जैसी न होगी। कहा है - "कुरान बाइबिल सब पढ़े चारों वेद पुरान। जो समता आई नहीं तो सब फोकट ज्ञान॥" अतएव हमारे जीरन में समता कैसे आवे, हम समता योग के सच्चे आराधक और साधक कैसे होवें, इस पर हमें गंभीरता से चिंतन करना है। यहाँ इसी हेतु कुछ महत्वपूर्ण व्यवहारिक उपाय जिनसे जीवन में समता योग की उपलब्धि हो सकती है। प्रस्तुत किए जा रहे हैं। ये ऐसे अनुभूत उपाय है, जिनसे स्वयं लेखक लाभान्वित हुआ है, और मुझे पूर्ण विश्वास है, कि जो भी मुमुक्ष आत्मार्थी इन पर विशेष चिंतन मनन कर जीवन में अपनावेंगे, वे समत्व भाव की साधना में निश्चित रूप से सफल होंगे। (१) गुण ग्रहण की रुचि - संसार में कोई जीव या अजीव वस्तु, ऐसी नहीं, कि जिसमें कोई गुण न हो। हम जिसके भी सम्पर्क मे आवें, उससे गुण ग्रहण करने का सतत प्रयास रखें। जैसे हंस, नीर क्षीर में से, नीर को छोड़ क्षीर ग्रहण कर लेता है, वैसे ही हम भी नीर क्षीर विवेक की दृष्टि रख, दोषों को छोड़ते हुए, जो भी गुण मिले उसे ग्रहण करने की वृत्ति जाग्रत करें। गुण दर्शन और गुण ग्रहण से सहज ही परस्पर प्रेम 3 प्रेम और सौहार्द्र का वातावरण बनता है, जो विषमता को मिटा समता की अभिवृद्धि करता है। (२) स्वदोष दर्शन - हमारे में समता न आने का एक प्रमुख कारण है, दूसरों से वैर विरोध व वैमनस्य रखना। हमें दूसरों के सूक्ष्म दोष भी बहुत बड़े नजर आते हैं, और अखरते हैं। जब कि स्वयं में रहे बड़े-बड़े दोष भी न तो नजर आते हैं, और न वे बुरे लगते हैं। एक कवि ने कहा है - “गैर की आँख का, तिनका भी नजर आता है। ___ अपनी आँख का, नजर आता नहीं शहतीर भी॥" पर निंदा से बचने के लिए स्वामी चिदानंद जी ने बड़ा सुंदर कथन इस प्रकार कहा है -'अंधकार को अपशब्द कहने की अपेक्षा, स्वयं पहिले अपने हाथ में दीपक उठाले, तो सर्वत्र प्रकाश होगा और अंधकार स्वयं कूच कर जायेगा।' हम स्वयं अपने दोषों को, विवेक के आलोक में पुनः-पुनः देखने का अभ्यास करें। जैसे - "कितनी त्याग सका पर निंदा, कितना अपना अंतर देखा। कितना अपने पुण्य पाप का, रख पाया हूँ अब तक लेखा॥ लोभ मोह मद कितना छोड़ा, नाता कम क्रोध से तोड़ा। विषय वासनाओं से हटकर, कितना निज से निज को जोड़ा॥" (१३६) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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