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धरातल से असंबद्ध होकर कूद पड़ती है। उसके सारे सभी कारण झुलस जाते हैं। दृष्टि में हिंसक व्यवहार अपने पूरे शक्तिशाली स्वर में गूंजने लगता है, शोषण की मनोवृत्ति सहानुभूति और सामाजिकता की भावना को कुंठित कर देती है, वयक्तिक और सामूहिक शान्ति का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है। इस दुर्वस्था की सारी जिम्मेदारी एकान्तवादि चिन्तकों के सबल हिंसक कंधों पर है जिसने समाज को एक झटकाव दिया है, अशान्ति का एक आकार-प्रकार खड़ा किया है और पड़ोसी को पड़ोसी जैसा रहने में संकोच, वितृष्णा और मर्यादाहीन भरे व्यवहारों की लौहिक दिवाल को गढ़ दिया है।
- अनेकान्तवाद और सर्वोदयदर्शन इन सभी प्रकार की विषमताओं से आपादमग्न समाज को एक नई दिशा-दान देता है। उसकी कटी पतंग को किसी तरह सम्हालकर उसमें अनुशासन तथा सुव्यरस्था की. सुस्थिर, मजबूत और सामुदायिक चेतना से सनी डोर लगा देता है, आस्था और ज्ञान की व्यवस्था में नया प्राण फूंक देता है। तब संघर्ष के स्वर बदल जाते हैं। समन्वय की मनोवृत्ति समता की प्रतिध्वनि, सत्यान्वेषण की चेतना गतिशील हो जाती है, अपने शास्त्रीय व्यामोह से मुक्त होने के लिए अपने वैयक्तिक एक पक्षीय विचारों की आहूति देने के लिए और निष्पक्षता, निर्वेता-निर्भयता की चेतना के स्तर पर मानवता को धूल धसरित होने से बचाने के लिए।
इस प्रकार की अनैतिकता और अस्तित्व को मिटाने तथा शुद्ध ज्ञान और चरित्र का आचरण करने की दृष्टि से अनेकान्तवाद और सर्वोदयदर्शन एक अमोघ सूत्र है। समता की भूमिका पर प्रतिष्ठित होकर आत्मदर्शी होना उसके लिए आवश्यक है। समता मानवता की सही परिभाषा है, समन्वयवृत्ति उसका सुन्दर अक्षर है, निर्मलता, और निर्भयता उसका फुलस्टाप है, निराग्रहीवृत्ति और असाम्प्रदायिकता उसका पैराग्राफ
अनैकान्तिक और सर्वोदय चिन्तन की दिशा में आगे बढ़नेवाला समाज पूर्ण अहिंसक और आध्यात्मिक होगा। सभी के उत्कर्ष में वह सहायक होगा। उसके साधन और साध्य पवित्र होंगे। तर्क शुष्कता से हटकर वास्तविकता की ओर बढ़ेगा। हृदय-परिवर्तन के माध्यम से सर्वोदय की सीमा को छुएगा। चेतना-व्यापार के साधन इन्द्रियाँ और मन संयमित होंगे। सत्य की प्रामाणिकता असंदिग्ध होती चली जायेगी। सापेक्षिक चिन्तन व्यवहार के माध्यम से निश्चय तक क्रमशः बढ़ता चला जायेगा स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर, बहिरंग से अन्तरंग की ओर, सांव्यावहारिक से पार मार्थिक की ओर, ऐन्द्रियक ज्ञान से आत्मिक ज्ञान की ओर।
... सापेक्षिक कथन दूसरों के दृष्टिकोण को समान रूप से आदर देता है। खुले मस्तिष्क से पारस्परिक विचारों का आदान-प्रदान करता है। प्रतिपाद्य की यथार्थवता प्रतिबद्धता से मुक्त होकर सामने आ जाती है।
वैचारिक हिंसा से व्यक्ति दूर हो जाता है। अस्ति-नस्ति के विवाद से मुक्त होकर नयों के माध्यम से प्रतिनिधि शब्द समाज और व्यक्ति को प्रेमपूर्वक एक प्लेटफार्म पर बैठा देते हैं। चिंतन और भाषा के क्षेत्र में “न या सियावाय वियागरेज्जा" का उपदेश समाज और व्यक्ति के अन्तर्द्वन्दों को समाप्त कर देता है, सभी को पूर्णन्याय देकर सरल, स्पष्ट, और निर्विवाद अभिव्यक्ति का मार्ग प्रशस्त कर देता है। आचार्य सिद्धर्सन ने “धार्विव समुदीर्णा स्य नाथ हृस्टयः” कहकर इसी तथ्य को अपनी भगवद् स्तुति में प्रस्तुत किया है। हरिभद्र की भी समन्वयात्मक साधना इस संदर्भ में स्मरणीय है -
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