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यः शस्त्रवृत्ति समरे रिपुः स्वात् यः कष्टको वा निजमण्डलस्टा। तमैव अस्त्राणि नृपाः क्षिपन्ति
न दीनकालीन कदाशयेषु॥ २. अपरिग्रह - अपरिग्रह सर्वोदय का अन्यतम अंग है। उसके अनुसार व्यक्ति और समाज परम्परा आश्रित है। एक दूसरे के सहयोग के बिना जीवन का प्रवाह गतिहीन सा हो जाता है। परस्परोऽपग्रहो जीवानाम) प्रगति सहमूलक होती है, संघर्षमूलक नहीं। व्यक्ति-व्यक्ति के बीच संघर्ष का वातावरण प्रगति के लिए घातक होता है। ऐसे घातक वातावरण के निर्माण में सामाजिक विषम वातावरण प्रमुख कारण होता है। तीर्थंकर महावीर ने इस तथ्य की मीमांसाकर अपरिग्रह का उपदेश दिया और सही समाजवाद की स्थापना की।
समाजवादी व्यवस्था में व्यक्ति को समाज के लिए कुछ उत्सर्ग करना पड़ता है। दूसरों के सुख के लिए स्वयं के सुख को छोड़ देना पड़ता है। सांसारिक सुखों का मूल साधन संपत्ति का संयोजन होता है। हर संयोजन की पृष्ठभूमि में किसी न किसी प्रकार का राग, द्वेष, मोह आदि विकार भाव होता है। संपत्ति के अर्जन में सर्वप्रथम हिंसा होती है। बाद में उसके पीछे झूठे, चोरी, कुशील अपना व्यापार बढ़ाते हैं। संपत्ति का अर्जन परिग्रह है और परिग्रह ही संसार का कारण है।
जैन संस्कृति वस्तुतः मूल रूप से अपरिग्रहवादी संस्कृति है। जिन, निग्रंथ, वीतराग जैसे शब्द अपरिग्रह के ही द्योतक हैं। अप्रमाद का भी उपयोग इसी संदर्भ में हुआ है। मूर्छा को परिग्रह कहा गया है। यह मूर्छा प्रमाद है और प्रमाद कषायजन्य है भाव है। राग द्वेषादि भाव से ही परिग्रह की प्रवृत्ति बढ़ती है। मिथ्यात्व कषाय, मोहकषाय, इन्द्रिय विषय आदि अन्तरंग परिग्रह है और धन धान्यादि बाह्यपरिग्रह है। ये आश्रव के कारण है। इन कारणों से ही हिंसा होती है प्रमत्तयोगातु प्राणव्यपरोपण हिंसा यह हिंसा कर्म है और कर्म परिग्रह है।
आचारींगसूत्र कदाचित, प्राचीनतम आगम ग्रन्थ है। जिसका प्रारम्भ ही शस्त्रपरिज्ञा से होता है। शस्त्र का तात्पर्य है हिंसा। हिंसा के कारणों की मीमांसा करते हुए वहाँ स्पष्ट किया गया है कि व्यक्ति वर्तमान जीवन के लिए, प्रशस्त, सम्मान और पूजा के लिए, जन्म, मरण और मोचन के लिये, दुःख प्रतिकार के लिए तरह-तरह की हिंसा करता है। द्वितीय अध्ययन लोकविजय में इसे भी स्पष्ट करते हुए कहा है कि सांसारिक विषयों का संयोजन प्रमाद के कारण होता है। प्रमादी व्यक्ति रात दिन परितप्त रहता है, काल या अकाल में अर्थार्जन का प्रयत्न करता है, संयोग का अर्थी होकर और अर्थलोलुपी चोर या लुटेरा हो जाता है। उसका चिन्त अर्थार्जन में ही लगा रहता है। अर्थार्जन में संलग्न पुरुष पुनः पुनः शस्त्रसंहारक बन जाता है। परिग्रही व्यक्ति में न तप होता है, न शान्ति और न नियम होता है। वह सुखार्थी होकर दुःख को प्राप्त करता है।
इस प्रकार संसार का प्रारम्भ आसक्ति से होता है और आसक्ति ही परिग्रह है। परिग्रह का मूल साधन हिंसा है, झूठ, चोरी कुशील उसके अनुवर्तक हैं। और परिग्रह उसका फल है। अतः जैन संस्कृति मूलतः अपरिग्रहवादी संस्कृति है जिसका प्रारम्भ अहिंसा के परिपालन से होता है। महावीर ने अपरिग्रह को ही प्रथम माना है।
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