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________________ धर्म और अहिंसा में शब्दभेद है, गुणभेद नहीं। धर्म अहिंसा है और अहिंसा धर्म है। क्षेत्र उसका व्यापक है। अहिंसा निषेधार्थक शब्द है। विधेयात्मक अवस्था के बाद ही निषेधात्मक अवस्था आती है। अतः विधिपाक हिंसा के अनन्तर इसका प्रयोग हुआ होगा। इसलिये संयम तप, दया आदि जैसे विधेयात्मक मानवीय शब्दों का प्रयोग पूर्वतर रहा होगा। हिंसा का मूल कारण है प्रमाद और कषाय। इसके वशीभूत होकर जीव के मन, वचन, कार्य में क्रोधादिक भाव प्रगट होते हैं जिनसे स्वयं के शब्द प्रयोग रूप भावप्राणों का हनन होता है। कषायादिक तीव्रता के फलस्वरूप उसके आत्मघात रूप द्रव्य प्राणों का हनन होता है। इसके अतिरिक्त दूसरे को गर्मान्तक वेदनादान अथवा परद्रव्यव्यपरोपण भी इन भावों का कारण है। इस प्रकार हिंसा में चार भेद हो जाते हैं स्वभावहिंसा, स्व-द्रव्यहिंसा, पर भावहिंसा और द्रव्यहिंसा (पुरुषार्थ सिद्धयुपांय ४३)। आचार्य उमास्वामि ने इसी का संक्षेप में प्रमत्तयोगात् प्राणव्यरोपण हिंसा कहा है। इसलिये भिक्षुओं को कैसे चलना फिरना चाहिए, कैसे बोलना चाहिए आदि जैसे प्रश्नों का उत्तर दशवैकालिक, मूलाचार आदि ग्रन्थों में दिया गया है कि उसे यत्नपूर्वक अप्रमत्त होकर उठना बैठना चाहिए, यत्नपूर्वक भोजन-भाषण करना चाहिए। ___ कहं चरे कह चिढे कहमासे कहं सए कर्थ भंजन्तो भासन्तो पावं कम्भं न बन्धई जयं चरे जयं चिट्ठे जयमासे जयं सए जयं भुंजन्तो भासन्तो पावं कम्भं न बंधई॥ दशवैकालिक, ४. ७-८ हिंसा का प्रमुख कारण रागादिक भाव हैं। उनके दूर हो जाने पर स्वभावतः अहिंसा भाव जाग्रत हो जाता है। दूसरे शब्दों में समस्त प्राणियों के प्रति संयमभाव ही अहिंसा है। अहिंसा निउणं दिट्ठां सव्वभूएसु संजमो (दश.)। उसके सुख संयम में प्रतिष्ठित है। संयम ही अहिंसा है। व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के उत्थान के लिए यह आवश्यक है कि वे परस्परा एकात्मक कल्याण मार्ग से अबद्ध रहे। उसमें सौहार्द्र, आत्मोत्थान, स्थायीशान्ति, सुख और पवित्र साधनों का उपयोग होता है, यही यथार्थ में उत्कृष्ट मंगल है। धम्मो मंगल मुक्किट्ठ अहिंसा संजमो तवो। देवा वितं नमसंति जस्स धम्मे सया मणो॥ दशवैकालिक १.१ मन, वचन, काय से संयमी व्यक्ति स्व-पर का रक्षक तथा मानवीय गुणों का आगार होता है। शील, संयमादि गुणों से आपूर व्यक्ति ही सत्पुरुष है। जिसका चित्त मलीन व दूषित रहता है वह अहिंसा का पुजारी कभी नहीं हो सकता। जिस प्रकार घिसना, छेदना, तपाना, रगड़ना इन चार उपायों से स्वर्ण की परीक्षा की जाती है, उसी प्रकार श्रुत, शील, तप, और दया रूप गुणों के द्वारा धर्म एवं व्यक्ति की परीक्षा की जाती है - संजमु सीलु सउज्जु तनु सूरि हिं गुरु सोई। दाह छेदक संघायकसु उत्तम कंचणु होई॥ भावपाहुड़ १४३ टीका जीवन का सर्वांगीण विकास करना संयम का परम उद्देश्य रहता है। सूत्रकृतांग में इस उद्देश्य को एक रूपक के माध्यम से समझाने का प्रयत्न किया गया है। जिस प्रकार कछुआ निर्भय स्थान पर निर्भीक होकर चलना-फिरता है किन्तु भय की आशंका होने पर शीघ्र ही अपने अंग-प्रत्यंग प्रच्छन्न कर लेता है, (१२०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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