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________________ ' अन्तिम कक्षा का ज्ञान रखनेवाले त्रिकालज्ञानी भगवान् महावीर ने ज्ञान-चक्षु से दृश्य-अदृश्य ऐसे विराट् विश्व को देखते हुए चैतन्य-अचैतन्य स्वरूप जो सृष्टि देखी उस समग्र सृष्टि में जीव पाँच प्रकार के शरीरों में विभक्त देखे। उन पाँच प्रकार के शरीरों के नाम क्रमशः १-औदारिक, २-वैक्रिय, ३- आहारक, ४- तैजस तथा ५- कार्मण हैं। मनुष्य, पशु-पक्षी, सूक्ष्य जन्तु आदि तिर्यञ्चों का औदारिक शरीर है। विराट् विश्व में अदृश्य रूप में स्थित औदारिक नामक परमाणुओं से वे शरीर बने हुए होते हैं। देव और देवियों के वैक्रिय शरीर होते हैं। औदारिक से भिन्न विराट् विश्व में वैक्रिय प्रकार के पुद्गल परमाणुओं से वे शरीर निर्मित होते हैं। शेष तीनों शरीर उन-उन शरीरों के बनने योग्य विश्व में प्रवृत्त पुगलों से बनते हैं। औदारिक शरीर न्यूनाधिक सात धातुओं -'रस, रक्त, मांस, भेद, अस्थि, मज्जा, तथा वीर्य, से बने होते हैं।' जब कि देवों के शरीरों में इन सात धातुओं में से एक भी धातु नहीं होती। फिर भी वैक्रिय वर्गणा के पुद्गल शरीर के उन-उन स्थानों में इस प्रकार संयुक्त हो जाते हैं कि वे देखने में आकृत्या मानव जैसे होने पर भी मनुष्य के शरीर से असाधारण सुदृढ, तेजस्वी, प्रकाशमान और अति सुन्दर होते हैं। वैक्रिय शरीर की बात पाठकों को कुछ नई लगे वैसी है किन्तु यह वास्तविक है। इन देवों के दर्शन अशक्य अथवा दुर्लभ होने से हमें उनके रूप अथवा काया के दर्शन नहीं हो सकते। तथापि उस दर्शन के लिये एक मार्ग उद्घाटित है, वह है 'मन्त्रसाधना'। मन्त्रसाधना की सिद्धि से मनुष्य आकर्षण कर सके तो उसके लिये दर्शन सुलभ बन जाते हैं। अथवा मानव को बिना साधना के, बिना प्रयल के प्रतिदिन देवों के भव्य और अनूठे शरीर के दर्शन करने हों तो तीर्थङ्कर इस धरती पर विचरण करते हों उस समय जन्म लेना चाहिये। ऐसे वैक्रिय शरीर धारी देवों को देवलोक में जन्म लेने के साथ ही भूत, भविष्य और वर्तमान के भावों को मर्यादित रूप से ज्ञान करानेवाला अवधिज्ञान प्राप्त होता है। और वे उस ज्ञान से भगवान् की समर्पणभाव से भक्ति करने वाले भक्तों की हुपकार्यसिद्धि की सफलता. मनोकामना की पति आदि कार्यों में यथाशक्ति सहायक बन सकते हैं। इसी प्रकार स्वयं उन देव-देवियों के नाम स्मरण, पजा-उपासना आदि किये जाएँ तो भी वे प्रसन्न होकर मनःकामनाओं की पर्ति में सहायक होते हैं। साधना जब शिखर पर पहुँचती है, तब इष्ट कार्य में अभीप्सित सफलता और सिद्धि प्राप्त की जा सकती है। देव-देवियाँ अद्भुत और आश्चर्यजनक चमत्कार कर सकते हैं। वे मानव की अपेक्षा हजारों गना सखी, बद्धिशाली, प्रकाशमय शरीर वाले, रूप के भण्डार से परिपूर्ण, सदा निरोगी और सुगन्धित श्वासवाले होते हैं। वे लाखों वर्षों की आयुष्य वाले और मात्र एक ही युवा अवस्थावाले होते हैं। वे नित्यभोजी नहीं होते। मल-मूत्र की उपाधि से मुक्त होते हैं। इस संसार में भौतिक सुख की पराकाष्ठा का नाम देवलोक है। ये देव-देवी गण केवल भौतिक सुख में ही सहायक नहीं होते अपितु धर्मप्राप्ति, मुक्ति प्रप्ति और कर्मक्षय में भी कारण बनते हैं। सिद्धि का सर्वोत्तम साधनः मन्त्र - साधना साधन-साध्य है। जैसा कार्य होता है उसी के अनुरूप साधन का अवलम्बन मिल जाता है तो राजमार्ग पर चल कर लक्ष्य तक पहुँचने में कोई कठिनाई (१०६) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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