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________________ जैन मन्त्र - साधना पद्धति :: एक परिचय डॉ. रुद्रदेव त्रिपाठी साधना अथवा उपासना की भावना जब हृदय में उदित होती है, तो समझना चाहिये कि 'मेरे सत्कर्मों का सुफल परिपक्व होकर अपनी सुगन्ध से मेरे अन्तर को सुवासित कर रहा है। क्योंकि ऐसी पवित्र भावना बिना सुकृतों के परिपाक के नहीं होती। गीता में कहा गया है कि जन्मान्तर-सहस्त्रेषु, कश्चिद् यतति सिद्धये । यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वत्तः ॥ हजारों जन्मों के बीत जाने पर कोई एक सिद्धि के लिये मेरी उपासना द्वारा मुझे प्राप्त करने के लिये- प्रयत्न करता है। और उन प्रयत्नशाली सिद्धों में भी कोई ही मुझे वास्तविक रूप से जान पाता है । - इस भावना को यथार्थ में लाने के लिये शास्त्रकारों ने अनेक उपाय बतलाये हैं। ऐसे उपायों में मुख्यतः दो उपाय प्रमुख हैं - १- बाह्य उपाय और २ - आन्तरिक उपाय । बाह्य उपाय के विभिन्न रूप हैं और वे अपने-अपने सम्प्रदाय तथा गुरूपदिष्ट मार्ग से अनुष्टित होते हैं। तप की महत्ता इसमें सर्वोपरि है किन्तु तप का तात्पर्य इस मार्ग में किसी सञ्चित प्रक्रिया तक सीमित रहकर कायकलेश सहन करना ही नहीं है, अपितु जीवन के सभी अङ्गों से मानसिक, वाचिक और शारीरिक प्रक्रियाओं का प्रकृष्ट रूप से सदुपयोग करना है । सभी कार्यों की सिद्धिं के मूल में कर्ता का तप ही बीजरूप में विद्यमान रहता है। उस बीज को अङ्कुरित, पल्लवित, पुष्पित और फलित करने के लिये भी तुद्नुकूल तप की अपेक्षा रहती है, तभी वह एक सर्वाग्ङ्पूर्ण वृक्ष बनकर उत्तमोत्तम फल प्रदान करने में समर्थ होता है। तप का ही अपर नाम है। “उपासना”। उपासना शब्द उप + आसना = " निकट बैठना" अर्थ को व्यक्त करता है। किस के निकट बैठना ? यह इससे सम्बद्ध पहला प्रश्न है और इसका उत्तर है 'अपने इष्ट के निकट' जिससे हमें कुछ प्राप्त करना है उसके पास हम पहुँचेंगे तभी तो कुछ ले पायेंगे? इस पर प्रतिप्रश्न होता है कि 'हमारा इष्ट तो हमारे हृदय में ही विराजमान है, फिर हम बाहर क्यों जाएँ ?' यह कथन समीचीन है, किन्तु जो हृदय में बैठा है, उस तक पहुँचने के लिये भी तो प्रयास करना होगा ? इसे एक उदाहरण द्वारा समझना चाहिये। जैसे घृत का आवास किन्तु क्या गौ के दूध, दही और मक्खन में हैं और वह गौ के दूध की परिणति होने से गौ में स्थित है। शरीर पर रोटी मलने से घृत की चिकनाहट रोटी पर आजाएगी? नहीं। उसके लिये तो दूध दुहने, उसे तपाकर दही जमाने और उसके मथने की क्रियाएँ करनी ही होंगी। ऐसी क्रियाओं को ही शास्त्रीय शब्दों में “ उपासना" कहा गया है। यह क्रिया स्वयम्प्रयास द्वारा किये जाने पर इष्ट के साथ तादात्म्य सम्पन्न कराने में पूर्ण सहायक होती है, इसीलिये यह अवश्य कर्तव्य है। Jain Education International (१०४) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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