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________________ जब इस युग के दूसरे एवं तीसरे काल खंड में कल्पवृक्षों की कमी आने लगी तो आदिकालीन मानवों में द्वन्द्व का वातावरयण सृजित हो गया। इस दुःखान्त स्थिति में मानव संघर्ष. से सुरक्षा की ओर उन्मुख हुआ तो व्यक्ति आश्रित पद्धति के विलीपन की संभावनाएं बनीं और सामुदायिकता का सूत्रपात हुआ। यह सामुहिकता कुल की परम्परा में ढल गई। कुलों की सृष्टि जिन्होंने की वे कुलकर कहलाये जो चौदह थे, अंतिम कुलकर नाभि थे। उन्होंने ही सर्व प्रथम दंड का विधान किया। इस युग में स्त्री पुरुष का युगल प्रजनन होता था पर नाभि और मरूदेवी से उत्पन्न युगल ऋषभ एवं सुनंदा ने परंपरा रूप परस्पर विवाह किया पर ऋषभ ने दूसरा विवाह करके इस सनातन परंपरा को विछिन्न कर दिया। आदि राजा ऋषभदेव ने मानव सभ्यता के विकास के नवीन आयाम उद्घाटित किये। ऋषभ से ही राज्य व्यवस्था का समारंभ हुआ। नगर एवं ग्रामों की सर्जना के साथ सभ्यता नागरिक होने लगी। कल्प वृक्षों के हास के कारण कृषि का विकास हुआ, पाक निर्माण एवं शिल्पकला का आविर्भाव हुआ। व्यापारिक प्रवृत्ति का विकास हुआ। ऋषभ ने ब्राह्मी और सुंदरी को क्रमशः अक्षर एवं अंक विद्या का अवदान प्रदान किया। ऋषभदेव द्वारा प्रणीत नव समाज से व्यक्तिवाद विलुप्त हो गया। इस व्यवस्था ने व्यक्ति के जीवन को तो सुरक्षित बनाया पर उसकी आकांक्षाओं को उभार दिया और वह युद्धोन्माद से ग्रस्त हो गया। नियति का उपासक मानव पुरुषार्थ का पुजारी बन गया। वह संस्कृति का संचालक बनकर व्यवस्थाओं का नियंता हो गया। ऋषभ युगीन मानव सिंधु सभ्यता पूर्व साधना में लीन था। फिर वही सिन्धु सभ्यता (३१०० ई.पू.-२५०० ई.पू.) का जनक बन गया। तो श्रमण संस्कृति के आदि पुरुष ऋषभ ने व्यक्ति आश्रित प्रणाली का निरसन कर सभ्यता की आधार शिला रखी जो उस युग के मानव की मनोकामना थी। सिन्धु सभ्यता से प्राप्त भग्नावशेषों से ज्ञात होता है कि तृतीय तीर्थंकर संभवनाथ तक सिन्धु सभ्यता का विकासकाल रहा है। संभवनाथ तक के तीनों तीर्थंकर मानव सभ्यता के विकास के प्रणेता रहे हैं। संभवनाथ का प्रतीक चिह्न अश्व था और सिंधु प्रदेश सेन्धव अश्वों के लिये सुविख्यात रहा है। मौर्यकाल पर्यन्त सिन्ध में संभु तक नामक जनपद व सांभाव जाति रही थी जो संभवनाथ की परंपरा से बद्ध थी। सिंधु सभ्यता में जो नागफना युक्त प्रस्तर कला के अवशेष मिलते हैं, वह सप्तम तीर्थंकर सुपार्श्व का प्रतीक था। इस तीर्थंकर का प्रतीक स्वस्तिक सिंधु सम्यता में शुभंकर माना गया है। इस तरह तीर्थंकरों का सभ्यता निर्माण में योगदान रहा है वैसे भी तीर्थंकर वैवल्य पाते ही तीर्थ स्थापना करते हैं जो एक विशुद्ध सामाजिक संरचना का स्वरूप है। बीसवें तीर्थंकर मुनि सुव्रतजिन का अस्तित्व रामायण काल (५००० ई.पू.) में रहा है, ने भी समाज को सुघटित बनाने में सहयोग दिया। विदेह राजा जनक के पूर्वज २१वें तीर्थंकर नमि मिथिला के अधिपति थे जिनकी अनासक्त वृति विश्रुत एवं सुख्यात रही है। वैदिक हिंसा से आक्रांत प्राचीन भारत में जब जनमानस त्रस्त था तभी पशु वध एवं कर्मकांड के विद्रोही स्वरूप में श्रमण संस्कृति खड़ी हो गई। १४. डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन- भारतीय इतिहास एक दृष्टि (१००) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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