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________________ श्रमण संस्कृतिः एक परिशीलन • मुनि डॉ. राजेन्द्र कुमार 'रलेश' जीवन, मानव के लिये सर्वोत्तम अतु सत्य है। जीवन की शाश्वत परम्परा हमें सहज अनाकांक्षित उपलब्ध हुई। जीवन के दो पक्ष है-उपलब्धि एवं उपयोग। जीवन की अज्ञात अदृष्ट भावों की सृष्टि से सहज उपलब्धि हुई है अतः उसमें उसकी गरिमामय अभिव्यक्ति नहीं है। जीवन की जो उपलब्धि हमें हुई है हम उसका सम्यक्रुपेण उपयोग करें, इसी में जीवन की सार्थकता के दर्शन होते हैं। यही जीवन का सौन्दर्य रूप है। ___ जीवन को उपयोगी बनाने हेतु समाज, सभ्यता, संस्कृति एवं धर्म, दर्शन की परिकल्पना एवं उसका विकास मानव ने किया। अगर इन व्यवस्थाओं की सत्ता नहीं होती तो मानव अपने जीवन के बाह्य एवं अंतर के पक्ष को समझ नहीं सकता, संवार नहीं सकता और उसका बाह्य एवं अंतर संघर्षरत होकर उसके व्यक्तित्व को विभाजित कर देता। जहाँ धर्म, दर्शन और संस्कृति का संबंध व्यक्तित्व की अस्तित्वमयी सत्ता से है, वहीं समाज एवं सभ्यता का संबंध उसके व्यक्तित्व से है। संस्कृति एवं सभ्यता - संक्षेप में जीवन का जितना विस्तार है उतनी ही संस्कृति की बहुमुखी सामग्री है। धर्म, दर्शन, साहित्य कला, समाज और उसकी परिवर्तनशील अनेक संस्थाएं, इन सबकी संज्ञा संस्कृति है। तथा मनुष्य की जीवन यात्रा को सरल सन्मार्गी बनाने वाली सभी आयोजन एवं आविष्कार, सभ्य उत्पादन के प्रसाधन तथा सामाजिक राजनैतिक संस्थाएं सभ्यता के प्रतिरूप हैं। र सभ्यता एवं संस्कृति के अन्तर संबंध के प्रश्न पर अनुचिंतन करते हैं तो पता चलता है कि सभ्यता मनुष्य के बाह्य प्रयोजनों की सहज लक्ष्य करने का विधान है और संस्कृति प्रयोजनातीत अन्तर आनन्द की अभिव्यक्ति। ३ धर्म - भारतीय वाङ्मय में धर्म कई अर्थों में व्यवहृत् शब्द है। अथर्ववेद में इसका प्रयोग धार्मिक विधियों एवं तज्जनित गुणों के संदर्भ में है।" छांदोग्य उपनिषद् में आश्रमों के विलक्षण विधानों को धर्म कहा है। बौद्ध सहित्य में धर्म शब्द का व्यवहार विभिन्न अर्थों में हआ है जिनमें एक सम्पर्ण शिक्षा भी है। जैन परिभाषा में धर्म का प्रयोग रीति परम्परा, स्थिति, मर्यादा एवं स्वभाव के अर्थ में किया है। ५ महाभारत में धर्म का आशय अहिंसा से लिया गया है। ५ १. डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल : कला और संस्कृति पृ. २७ श्रमण संस्कृति सिद्धान्त और साधना, पृष्ठ १६१ हजारी प्रसाद द्विवेदी अथर्ववेद ए, १७ कल्पसूत्र एवं आचाराड्ग सूत्र महाभारत अनुशासन पर्व ११५/१ एवं वनपर्व ३७३/३७६ (९८) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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