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________________ अप्रतिघाती होती है। वह वज्र और पर्वत के इस पार से उस पार भी निकल जा सकता है। पर कभी कभी एक परमाणु दूसरे परमाणु से टकरा भी सकता है। पुद्गल में, अनन्त शक्ति भी होती है। एक परमाणु यदि तीव्र गति से गमन करे तो काल के सब से छोटे अंश अर्थात् एक समय में वहलोक के एक छोर से दूसरे छोर तक जा सकता है। पुद्गल द्रव्य लोक में अवस्थित है, लोक से बाहर नहीं है। लोक के प्रदेश, असंख्यात ही होते हैं। जबकि पुद्गल द्रव्य ही केवल अनन्त अनन्त प्रदेशात्मक है। अब विचारणीय प्रश्न उठता है कि अनन्त-अनन्त पुद्गल असंख्यात प्रदेश वाले लोक में कैसे स्थित हैं। जब कि एक प्रदेश, आकाश का वह अंश है, जिस से छोटा कोई अंश संभव ही न हो? उक्त प्रश्न का समाधान यह है कि सूक्ष्म परिणमन और अवगाहन शक्ति के कारण परमाणु और स्कन्ध सभी सूक्ष्मरूप परिणत हो जाते हैं। और इस प्रकार एक ही आकाश-प्रदेश में अनन्त-अनन्त पुद्गल रह जाते हैं। उक्त विषय को स्पष्टतया समझाने के लिये एक भावपूर्ण उदाहरण है- एक कक्ष में एक प्रदीप का प्रकाश पर्याप्त रूप से व्याप्त है। उस में एक शतक दीपकों का प्रकाश भी सहज रूपेण समा सकता है। अथवा एक दीपक का प्रकाश, जो किसी बड़े कक्ष में फैला रहता है, किसी छोटे से भाजन से ढंक जाने पर, उसी में समा जाता है। उक्त कथन से अति स्पष्ट है कि पुद्गल के प्रकाश-परमाणुओं में सूक्ष्म परिणमन शक्ति विद्यमान है। उसी प्रकार पुद्गल के प्रत्येक परमाणु की स्थिति है। परमाणु की भांति स्कन्धों में भी सूक्ष्म परिणमन और अवगाहन शक्ति होती है। अवगाहन शक्ति के कारण परमाणु या स्कन्ध जितने स्थान में स्थिति होता है, उतने ही, उसी स्थान में अन्य परमामु और स्कन्ध भी रह सकते हैं। सूक्ष्म परिणमन की क्रिया का अर्थ ही यह हुआ कि परमाणु में संकोच हो सकता है, उस का घन फल, न्यून भी हो सकता है। पुद्गल द्रव्य का जीव द्रव्य के साथ संयोग भी होता है। यह संयोग दो प्रकार का है -प्रथम अनादि है और द्वितीय सादि है। सम्पूर्ण जीव द्रव्यों का संयोग पुद्गल-परमाणुओं के साथ अनादि काल से है। या था। इस अनादि संयोग से मुक्त भी हुआ जा सकता है। मुक्त जीव को यह संयोग फिर से कदापि नहीं होता, लेकिन मुक्त या बद्ध जीव को यह प्रतिक्षण होता है, व मिटता रहता है। इसी होने-मिटने वाले संयोग को सादि कहा जाता है। यह संयोग क्यों होता है? इस प्रश्न के दो उत्तर हैं -जहाँ तक अनादि संयोग का प्रश्न है। उस का कोई उत्तर नहीं। जब से जीव का अस्तित्व है, तभी से उस के साथ पुद्गल परमाणुओं का संयोग भी है। जिस सुवर्ण को अभी खान से निकाला ही न गया हो, उस के साथ धातु, मिट्टी आदि का संयोग कब से है। इस का कोई उत्तर नहीं। जब से सोना है, तभी से उस के साथ धातु, मिट्टी आदि का संयोग भी है। यह बात दूसरी है कि सोने को उस धातु, मिट्टी आदि से मुक्त किया जा सकता है। उसी तरह जीव द्रव्य भी स्वयं के पुरुषार्थ से अपने को कार्मण वर्गणा से मुक्त कर सकता है। इधर, जहाँ तक सादि संयोग का प्रश्न है, इस का उत्तर दिया जा सकता है। अनादि संयोग के वशीभूत होकर जीव नाना प्रकार का विकृत परिणमन करता है। और इस परिणमन को निमित्त के रूप में पुद्गल परमाणु अपने आप ही कार्मण-वर्गणा के रूप में परिवर्तित होकर तत्काल जीव से संयुक्त हो जाते हैं। संयोग के बनने-मिटने की यह प्रक्रिया तब तक चलती रहती है, गतिशील है, जब तक जीव द्रव्य स्वयमेव अपने विकृत परिणमन से मुक्त नहीं हो जाता है। उससे छुटकारा नहीं पा लेता है। १९ - क- राजप्रश्नीय सूत्र. सूत्र-७४! । ख- तत्त्वार्थ सूत्र- अ.५ सू.१६! (३९) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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