________________
समतायोग का अन्तः दर्शन
•
समतायोग क्या है? - समतायोग क्या है? चिन्तन कर लें। योग आत्मा को परमात्मा से मिलाने वाली शक्ति है। आत्मा के परमात्मा से मिलने के मार्ग में आने वाले आरोह अवरोह, उतार चढ़ाव, विघ्न बाधाओं को समता के माध्यम से पार करना है, इसे हम समतायोग कहते हैं। इस प्रकार समतायोग का अर्थ हुआ समता के माध्यम से आत्मा को परमात्मा से या अपने चरम लक्ष्य से जोड़ने वाला, मिलाने वला योग । समतायोग आत्मा को इस चैतन्य यात्रा में अंतिम लक्ष्य मोक्ष तक पहुँचाने वाला एक यथदर्शक गाइड या भोमिया है जो चैतन्य यात्रा के पथ का चप्पा चप्पा जानता है। भगवद्गीता में 'समत्व योग उच्चते' समता बुद्धि को योग कहा है।
श्रमण संघीय सलाहकार श्री रतनमुनि
समतायोग का महत्व एवं उपयोगिता सारा विश्व विषमताओं से घिरा हुआ है। कहीं भी समसूत्र पर स्थित नहीं है। सभी व्यक्तियों के समक्ष प्रत्येक समय प्रत्येक परिस्थिति अनुकुल होती है, वही दूसरे समय उसके लिए प्रतिकूल हो जाती है। क्या आपने कभी सोचा है कि यह संसार विषम और विकृत क्यों बनता है? उसे विषम बनाने में किसका हाथ है ? इसे हम सम बना सकते हैं? संसार अपने आप कोई विषम नहीं है। इसे विषम या विकृत बनाने वाली मनुष्य की दृष्टि है। यदि विषम परिस्थितियों में पले हुए व्यक्तियों के पास में समतायोगी के लिए तो संसार समसूत्र पर स्थित हो जाता है। वास्तव में संसाकर में विषमता राग और द्वेष के कारण होती है। यदि सर्वत्र सभी परिस्थितियों एवं संयोगो में राग द्वेष से दूर रहा जाए तो व्यक्ति के लिए संसार में सम होते देर नहीं लगती । संसार के दो रूप हैं। एक ओर रागरूपी महासमुद्र है तो दूसरी ओर द्वेषरूपी दावानल है। इन दोनों छोर के बीच में जो जो मार्ग हैं। जिससे रागद्वेष दोनों का लगाव नहीं है वह साम्य है, वह समतायोग कहलाता है।
Jain Education International
·
समतायोग राग और द्वेष दोनों से बचाकर आत्मा को समसूत्र पर रखता है। वह मानव जीवन के सभी अटपटे एवं विषम प्रसंगों या प्रश्नों पर समभाव का मंत्र देकर राग-द्वेष से आत्मा की रक्षा करता है । जहां भी जीवन में अमोनोज्ञ, अनिष्ट एवं घृणित पदार्थों या व्यक्तियों का संयोग होगा, वहाँ समतायोग से अभ्यस्त, अनभिज्ञ व्यक्ति, सहसाद्वेष, घृणा, अरुचि या रोष करेगा तथा मनोज्ञ, इष्ट, स्पृश्य आदि पदार्थों के अनुकूल अभीष्ट परिस्थितियों या व्यक्तियों आदि के प्रति वह मन में राग / मोह / आसक्ति या लालसा आदि करेगा तो प्रतिकूल पदार्थों, संयोगों, परिस्थियों या व्यक्तियों के संयोग में तथा अभीष्ट अनुकूल पदार्थों के वियोग में तिलमिला उठेगा, दुःखित एवं व्यथित हो उठेगा। अभीष्ट कार्य में या प्रचुर साधनों के न मिलने पर उसका मन ईर्ष्या, खिन्नता, उदासी एवं निराशा से भर जायेगा ।
समतायोग के सभाव में व्यक्ति के पास प्रचुर धनसाधन, बलबुद्धि, विद्या वैभव आदि होते हुए भी दूसरे के प्रति ईर्ष्या, द्वेष तथा ममता और आसक्ति, अहंकार और मद के अभाव के कारण दुःखित पीड़ित नहीं होता है, जबकि दूसरा प्रचुर मात्रा में वस्तु के होने पर भी दुःखी असंतुष्ट दिखाई देता है। यह सब
(१९)
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org