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सभी धर्मों और सम्प्रदायों में ऐसे महान् व्यक्ति हुए हैं, जो नैतिक एवं धार्मिक आचरण करके उच्चपद पर पहुँचे हैं, विश्ववन्द्य और पूजनीय बने हैं। उनके नैतिक एवं आध्यात्मिक आचरणों के सुफल प्राप्त करने में कोई भी शक्ति या देवी देव बाधक नहीं बने। यह कर्मविज्ञान द्वारा नैतिक सन्तुष्टि नहीं तो क्या है? कर्मसिद्धान्त का कार्य : नैतिकता के प्रति आस्था जगाना, प्रेरणा देना
डॉ. सागरमल जैन के अनुसार “सामान्य मनुष्य को नैतिकता के प्रति आस्थावान् बनाये रखने के लिये यह आवश्यक है कि कर्मों की शुभाशुभ प्रकृति के अनुसार शुभाशुभ फल प्राप्त होने की धारणा में उसका विश्वास बना रहे।” २°जैनकर्म विज्ञान जनसाधारण को नैतिकता के प्रति आस्थावान रखने और अनैतिक (पाप) कर्मों से बचाने में सफल सिद्ध हुआ है। जैन धर्म के महान् आचार्य कलिकाल सर्वज्ञ हेमन्चद्रसूरि ने गुजरात के सोलंकी राजा कुमारपाल को और उसके आश्रय से अनेक राजाओं, मंत्रियों और जनता को कर्म विज्ञान का रहस्य समझा कर अनैतिक कृत्य करने से बचाया है और नैतिकता धार्मिकता के मार्ग पर चढ़ाया है। आचार्य हीरविजयसूरि तथा उनके शिष्यों ने सम्राट अकबर को कर्मविज्ञान के माध्यम से प्रतिबोध देकर अनैतिक आचरणों से बचा कर नैतिकता के पथ पर चढ़ाया था। इस युग में जैनाचार्य पूज्य श्री लालजी महाराज, ज्योतिर्धर पूज्य श्री जवाहर लालजी महाराज, जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज आदि अनेक नामी-अनामी आचार्यों एवं प्रभावक मुनिवरों ने अनेक राजाओं, शासकों, ठाकुरों, राजनेताओं, एवं समाजनायकों तथा अपराधियों को जैनकर्म विज्ञान के माध्यम से मांसाहार, मद्यपान, -शिकार, वेश्यागमन; परस्त्रीगमन, जुआ आदि अनैतिक कृत्य छुड़ा कर नैतिक जीवन जीने की प्रेरणा दी है २१। कई महान् सन्तों ने, जैन श्रावकों ने कर्मविज्ञान का सांगोपांग अध्ययन करके, दूसरों को समझा-बूझा कर इसी बात पर जोर दिया है कि भगवान् या परमात्मा की वास्तविक सेवा-पूजा उनकी आज्ञाओं का परिपालन करना है। २२ एक ओर से अपने आपको परमात्मा (खुदा या गॉड) का भक्त (इबादतगार) कहे परन्तु प्राणिमात्र के प्रति रहम (दया) करने, मांसाहार, मद्यपान, व्यभिचार आदि पापकर्म न
नकी आजाओं को ठकराता जाए. वह खदा. परमात्मा या सतश्री अकाल का भक्त (बंदा) नहीं है। जैनकर्म विज्ञान इस तथ्य पर बहुत जोर देता है कि अगर अहिंसादि शद्ध कर्म (धर्माचरण) न कर सको तो, कम से कम आर्यकर्म (नैतिक आचरण) तो करो! २३ ।।
अतः यह दावे के साथ कहा जा सकता है, कि जैनकर्म विज्ञानानुसार कर्म सिद्धान्त की नैतिकता के सन्दर्भ में पद-पद पर उपयोगिता है।
यह बात निश्चित है कि सांसारिक मानव सदैव निरन्तर शुद्ध . उपयोग में रह कर, ज्ञाता-द्रष्टा बन कर शुद्ध कर्म पर या अरागदृष्टि होकर अकर्म की स्थिति या स्वरूपरमण की स्थिति में नहीं रह सकता, इसलिए जैन कर्म विज्ञान के प्ररूपक तीर्थंकरों ने कहा शुभ-उपयोग में रह कर अनासक्तिपूर्वक कम से कम शुभकर्म करते रहना चाहिए। नौ प्रकार के पुण्य इसी उद्देश्य से बताए हैं। साथ ही उन्होंने अशुभकर्म रूप २०. जैनकर्म सिद्धान्तः तुलनात्मक अध्ययन (डॉ. सागरमल जैन)?
देखें पूजश्रीलालजी महाराज का जीवन चरित्र, पूज्यश्री जवाहरलालजी माहत्मा का जीवन चरित्र भाग १ तथा जैन दिवाकर चौथमलजी महाराज आदि का जीवनचरित्र।
तवसपयस्तिवा ज्ञापरिपालनम्- हेषचन्द्रचार्य २३. “जइ तेसि भोगे चइउं अहन्तो, अज्ञाई कम्माइ करेह राय!-“उत्तराध्ययनसूत्र अ.१३ मा. ३३
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